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पज्जुण्णचरित
-प्रो० (डॉ०) विद्यावती जैन
प्राकृत की सुयोग्य उत्तराधिकारिणी अपभ्रंश-भाषा का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। इसमें विद्वान् लेखकों ने अपनी प्रतिभा के प्रयोग से अनेकों चमत्कार उत्पन्न किये हैं। ऐसे ही एक अद्भुत ग्रंथ का परिचयात्मक मूल्यांकन इस विशिष्ट आलेख में विदुषी लेखिका ने | प्रस्तुत किया है।
–सम्पादक 'पज्जुण्णचरिउ' प्रद्युम्नचरित-सम्बन्धी अपभ्रंश-भाषा में लिखित सर्वप्रथम स्वतन्त्र महाकाव्य है। वह जैन-परम्परानुमोदित महाभारत का एक अत्यन्त मर्म-स्पर्शी आख्यान है। महाकवि जिनसेन (प्रथम) कृत हरिवंशपुराण' एवं गुणभद्र कृत 'उत्तरपुराण' जैसे पौराणिक महाकाव्यों से कथा-सूत्रों को ग्रहण कर महाकवि सिंह ने उसे नवीन भाषा एवं शैली से सजाकर एक आदर्श मौलिक स्वरूप प्रदान करने का सफल प्रयास किया है। जैन-परम्परानुसार प्रद्युम्न 21वाँ कामदेव था। वह पूर्व-जन्म के कर्मों के फलानुसार नारायण श्रीकृष्ण का पुत्र होकर भी जन्म-काल से ही अपहृत होकर विविध कष्टों को झेलता रहता है। माता-पिता का विरह, अपरिचित-परिवार में भरण-पोषण, सौतेले भाइयों से संघर्ष, दुर्भाग्यवश धर्म-पिता से भी भीषण-युद्ध, विमाता के विविध षड्यन्त्र और अनजाने ही पिता श्रीकृष्ण से युद्ध जैसे घोर-संघर्षों के बीच प्रद्युम्न के विवश-जीवन को पाठकों की पूर्ण सहानुभूति प्राप्त होती है। विविध विपत्तियाँ प्रद्युम्न के स्वर्णिम भविष्य के लिए खरी-कसौटी सिद्ध होती हैं। काललब्धि के साथ ही उसके कष्ट समाप्त होते हैं। माता-पिता से उसका मिलाप होता है तथा वह एक विशाल साम्राज्य का सम्राट् बन जाता है; किन्तु भौतिक सुख उसे अपने रंग में नहीं रंग पाते। शीघ्र ही वह उनसे विरक्त होकर मोक्ष-लाभ करता है।
कवि ने उक्त कथानक को 15 सन्धियों एवं उनके कुल 308 कड़वकों में चित्रित किया है, जो निम्न प्रकार हैं:
सन्धि- कुल कड़वक
विषय क्रम संख्या 1 16 कवि सिद्ध द्वारा स्वप्न में सरस्वती-दर्शन एवं उनकी प्रेरणा से
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000
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