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अनुभूतियाँ मुखरित हुई हैं। इसमें यदि एक ओर नैतिक एवं धार्मिक आदर्शों की गंगा-जमुनी प्रवाहित हुई है, तो दूसरी ओर लोक-जीवन से प्रादुर्भूत ऐहिक रस के मदमाते रससिक्त निर्झर भी फूट पड़े हैं। एक ओर वह पुराण-पुरुषों के महामहिम चरित्रों से समृद्ध हैं, तो दूसरी ओर वणिक्पुत्रों अथवा सामान्य वर्ग के सुखों-दुःखों अथवा रोमांसपूर्ण कथाओं से परिव्याप्त है। श्रद्धा-समन्वित भावभीनी स्तुतियों, सरस एवं धार्मिक सूक्तियों तथा ऐश्वर्य-वैभव, वैवाहिक उत्सव एवं भोग-विलासजन्य वातावरण, वन-विहार, संगीत-गोष्ठियाँ, जल-क्रीड़ायें आदि विषयों से सम्बन्धित विविध चित्र-विचित्र चित्रणों से अपभ्रंश-साहित्य की विशाल चित्रशाला अलंकृत है। __ नारी-जीवन में क्रान्ति की सर्वप्रथम समर्थ चिनगारी अपभ्रंश-साहित्य में दिखलाई पड़ती है, जिसकी प्रशंसा महापण्डित राहुल सांकृत्यायन जैसे महान् चिन्तकों ने भी मुक्तकण्ठ से की है। महासती सीता, रानी रेवती, महासती अनन्तमती, रानी प्रभावती प्रभूति नारी-पात्रों ने इस दृष्टि से अपभ्रंश के कथा-साहित्य में एक नवीन क्रान्तिकारी यशस्वी जीवन प्राप्त किया है। महाकवि रइधू की 'पुण्णासवकहा' रचना भी अपभ्रंश के कथा अथवा आख्यान-साहित्य की दृष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखती है। ___ अपभ्रंश-साहित्य जोइंदु कवि कृत 'परमप्पयासु' एवं 'जोयसारु' जैसे मुक्तक-काव्य से आरम्भ होकर प्रबन्धकाव्य-विधा में पर्यवसान को प्राप्त हुआ है। यत: साहित्य की परम्परा सदैव मुक्तक से ही आरम्भ होती है। प्रारम्भ में जीवन किसी एक दो भावना के द्वारा ही अभिव्यंजित किया जाता है, पर जैसे-जैसे ज्ञान और संस्कृति के साधनों का विकास होने लगता है, जीवन भी विविधमुखी होकर साहित्य में प्रस्फुटित होता चलता है। संस्कृत और प्राकृत में साहित्य की जो विविध प्रवृत्तियाँ अग्रसर हो रही थीं, प्राय: वे ही प्रवृत्तियाँ कुछ रूपान्तरित होकर अपभ्रंश-साहित्य में भी प्रविष्ट हुई। फलत: दोहा-गान के साथ-साथ प्रबन्धात्मक पद्धति भी अपभ्रंश में समादृत हुई। इस दृष्टि से चउमुह, द्रोण, ईशान, स्वयम्भू, धनपाल, पउमकित्ति, नयनंदि, वीर एवं विबुध श्रीधर जैसे ज्ञात एवं अनेक अज्ञात एवं विस्मृत कवि प्रमुख हैं। सन्दर्भ-सूची :1. संस्कृतप्राकृतापभ्रंशभाषात्रयप्रतिबद्धप्रबन्धररचनानिपुणतरान्त:करण......
--(Indian Antiquary, Vol. X, 284, Oct. 1881 A.D.) 2. शब्दार्थो सहितं काव्यं गद्य-पद्यं च तदद्विधा। ____संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा ।। - (काव्यालंकार 1, 16, 28)
3. आभीरादिगिर: काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृत:।। ___ शास्त्रेषु संस्कृतादन्यदपभ्रंश तयोदितम्।। -(काव्यादर्श 1/36) 4. तदेतद् वाङ्मयं भूय: संस्कृतं प्राकृतं तथा।
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000