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________________ 'मूलदेव कथानक' के माध्यम से इनमें वैदेशिक व्यापार, आयात-निर्यात, यातायात के साधन, जलदस्युओं तथा अन्य कारणों से सामुद्रिक-यात्रा की कठिनाइयों, उद्योग-धन्धे, कराधान एवं कर-चोरी, शिल्पकला-कौशल, सामाजिक रीति-रिवाज, धार्मिक अन्धविश्वास एवं नर-नारियों के विविध चरित्रों की प्रासंगिकता और समकालीन विविध परिस्थितियों को भी प्रकाशित किया गया है। मध्यकालीन भारतीय इतिहास के विविध पक्षों के लेखन की दृष्टि से ये साक्ष्य बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं। _'पुण्णासवकहा-प्रशस्ति' में उल्लिखित चन्द्रवाड-पट्टन (वर्तमान चंदुवार-ग्राम) के वर्णन से स्पष्ट होता है कि 15वीं-16वीं सदी का वह एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। वहाँ 84 बार पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें हुई थीं। कवि के वर्णनानुसार वहाँ बहुमूल्य हीरे, माणिक्य, पुखराज, स्फटिक आदि की अनेक सुन्दर जैन मूर्तियों का निर्माण एवं प्रतिष्ठायें हुई थीं। ये तथ्य रइधूकालीन चन्द्रवाडपट्टन की श्री-समृद्धि एवं वहाँ के निवासियों की सांस्कृतिक अभिरुचियों की सूचना देते हैं। वर्तमान में वह नगर एक उजाड़ ग्राम के रूप में रह गया है, किन्तु स्फटिक आदि की बहुमूल्य सुन्दर मूर्तियाँ अभी भी वहाँ खुदाई में उपलब्ध होती हैं। उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति के आधार पर चन्द्रवाडपट्टन के अतीतकालीन वैभव की खोज की जा सकती है। उक्त कथा-काव्यों में प्रसंगवश आचार्य भद्रबाहु, सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम), सम्राट अशोक एवं सम्प्रति की कथा भी उपलब्ध होती है, जिसमें जैन संघ-भेद जैसे अनेक नवीन रोचक ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त होते हैं। वर्तमान युग चरित्र-संकट एवं घोर नैतिक-हास का युग है। मानवीय मूल्यों का उसमें क्षिप्रगति से अवमूल्यन हो रहा है। भ्रष्ट राजनीति, जमाखोरी, घूसखोरी, हिंसा-प्रतिहिंसा, पदलोलुपता, ऊँच-नीच एवं गरीबी-अमीरी का भेदभाव, शराब-खोरी, जुआखोरी, मिलावट, चोरी-डकैती, हत्यायें एवं बलात्कार आदि कुकर्म समाज एवं राष्ट्र को खोखला बना रहे हैं। उनका समाधान उक्त कथा-साहित्य की सोद्देश्य लिखित नीति-प्रधान एवं चरित्र-निर्माण सम्बन्धी आदर्श कथायें कर सकती हैं। पाँच अणुव्रतों का पालन, सप्त-व्यसनों का त्याग, चतुर्विध-दान का महत्त्व, कठोर परीषहों का सहन आदि सम्बन्धी कथायें सरस एवं सरल भाषा-शैली में लिखकर स्वस्थ समाज एवं राष्ट्र-निर्माण की दृष्टि से अपभ्रंश के जैन कवियों ने अद्वितीय कार्य किया है। अपभ्रंश-साहित्य का भाषा-शास्त्र एवं काव्यरूपों की दृष्टि से जितना महत्त्व है, उससे कहीं अधिक उसका महत्त्व परवर्ती काल-साहित्य-लेखन को देन की दृष्टि से है। अपभ्रंश के प्राय: समस्त जैन कवि, आचार, अध्यात्म एवं दार्शनिक तथ्यों तथा लोक-जीवन की अभिव्यंजना कथाओं के परिवेश द्वारा ही करते रहे हैं। इसप्रकार के आख्यानों के माध्यम से अपभ्रंश-साहित्य में मानव-जीवन एवं जगत् की विविध मूक-भावनायें एवं प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000 4037
SR No.521364
Book TitlePrakrit Vidya 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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