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ते केचिद्विलासा: समुदूढघन-स्नेहरसा: ते वै परिहासा ये प्रमोदमवहन्नहो। तत्तत्समयेषु सुहृद्गोष्ठीसुखसंभृतानि तानि रमितानि यानि चिन्तामहरन्नहो।। मंजुनाथ-निध्यानेन किमपि नवीनानीव कौतुकमिदानीमपि चित्तेऽजनयन्नहो। कानिचित्सुखानि यानि पूर्वमनुभूतान्यपि साम्प्रतमतीतवृत्तभूतान्यभवन्नहो।।
-(जयपुरवैभव, पृ0 212) यह शैली व्रजभाषा, हिन्दी, उर्दू आदि के काव्यों में कैसी रसप्रवणता पैदा करती है, आप सबने देखी ही होगी।
केवल उक्तिभंगी द्वारा तरलता पैदा करनेवाली ऐसी शैली का एक और उदाहरण है सज्जन की शालीन-प्रकृति का यह चित्रण
सुअणो ण कुप्पइ च्चिअ अह कुप्पइ विप्पियं ण चिंतेइ।
अह चिंतेइ ण जंपइ अह जंपइ लज्जिओ होइ।। 3/50 भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने इसका समछन्दोनुवाद इसप्रकार किया है
कुप्यत्येव न सुजनो यदि कुप्यति विप्रियं न चिन्तयति।
यदि चिन्तयति न कथयति यदि कथयति लज्जितो भवति।। ___ यह शैली तो उक्ति-विच्छत्ति-मात्र से चमत्कार पैदा करती है, किन्तु लोकजीवन के पर्यवेक्षण से बिम्ब लेकर कुटिलजनों का खाका खींचनेवाली कुछ उक्तियाँ प्राकृत से ही संस्कृत के सुभाषितों में गई होंगी, ऐसा लगता है। दर्पण की सफाई राख से की जाती थी। इस बिम्ब को लेकर वज्जालग्गं' की एक गाथा दुष्टजनों का चित्रण इन शब्दों में करती है— सुअणो सुद्धसुभाओ मइलीजंतो वि दुज्जणजणेण।
छारेण दप्पणो विअ अहिययरं निम्मलो होइ।। 33।। ठीक यही बात कालजयी गद्यकार सुबन्धु ने संस्कृत में कह दी है
हस्त इव भूतिमलिनो यथा-यथा लंघयति खल: सुजनम् ।
दर्पणमिव तं कुरुते तथा-तथा निर्मलच्छायम् ।। अब इनमें कौन उपजीव्य रहा है, कौन उपजीवी, —इसका निर्णय भला कौन कर सकता है? सम्भावनायें दोनों ही तरह की हैं। सुबन्धु की आर्या पहले मौलिकरूप से उद्भूत हुई हो तथा प्राकृत में उसका उपजीवन किया गया हो, यह भी सम्भव है; क्योंकि 'वज्जालग्गं' के संग्रहकार जयवल्लभ सूरि का समय 5वीं सदी ई० से लेकर 12वीं सदी तक कभी भी हो सकता है ऐसा विद्वानों का निष्कर्ष है। यह भी हो सकता है कि गाथाओं की प्राकृत में सुप्रचलित परम्परा के क्रम में सुबन्धु ने इसे पढ़ा हो और ग्रहण किया हो, क्योंकि 'काँच की सफाई' की बात तथा आर्या छन्द, ये सभी प्राकृत और लोकजीवन में रचे बसे होने के कारण उसके अपने लगते हैं। यह अवश्य स्पष्ट लगता है कि प्रथम दो अभिव्यक्ति भंगिमायें प्राकृत तक ही सीमित रहीं, सज्जन-दुर्जन वाली
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000