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है, जिन्हें प्रतिनिधि के रूप में लिया जा सकता है। जिसप्रकार लोककथाओं के अध्ययन के लिए उनके मोटीफ (Motifs) या कथातन्तु विश्लेषित कर उन्हें विभिन्न भाषाओं में तलाशा जा सकता है, उसीप्रकार ललित साहित्य की भणितिभंगी की एक विधा (पैटर्न) को विभिन्न साहित्यों में आसानी से पहचाना जा सकता है।
एक उदाहरण से बात समझ में आ जायेगी। वियोग में या प्रेम की अप्रत्याशित समाप्ति पर पुरानी बातों को याद कर, वे दिन कहाँ गये, वे मधुरोक्तियाँ, वे वादे, वे कसमें क्या हुईं' इत्यादि अभिव्यक्ति-शैली जो आज हिन्दी, उर्दू आदि में खूब सुनने को मिलती है, संस्कृत के अभिजात-साहित्य में उतनी नहीं मिलती। यह भाव-तरल अन्दाजे-बयाँ प्राकृत में सुप्रचलित है, जिसका एक उदाहरण है यह गाथा
ताणं गुणग्गहणाणं ताणुक्कठाणं तस्स पॅम्मस्स । ताणं भणिआअं सुंदर एरिसिअंजाअमवसाणं ।।
-(काव्यप्रकाश, चतुर्थ उल्लास 102) तेषां गुणग्रहणानां तासामुत्कण्ठानां तस्य प्रेम्ण: ।
तेषां भणितानां सुन्दर ! ईदृशं जातमवसानम् ।। यह उसकी संस्कृत-छाया है। मम्मट ने अलग से संस्कृत-छाया लिखना आवश्यक नहीं समझा; क्योंकि उस समय प्राकृत सुप्रचलित और सुबोध्य रही होगी, जैसा हमने पहले संकेत दिया है।
इसमें जो रस है, वह शैली का है। इसने मम्मट जैसे काव्यशास्त्रीय का दिल जीत लिया; किन्तु किस रस या अलंकार का उदाहरण इसे बतायें, यह चिन्तन उन्हें झकझोर रहा होगा। उन्होंने इसे एकवचन, बहुववचन आदि का साथ-साथ प्रयोग करके रस पैदा किया जा सकता है, इसके उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है। और वे करते भी क्या? यह गाथा सप्तशती में संकलित नहीं है, किन्तु एक वाक्-प्रस्तुति का प्रतिनिधित्व करती है। यह परम्परा अभिजात-संस्कृत में गहरी नहीं पैठ पाई है, प्राकृत की अपनी है; यद्यपि इसका आधार लेकर एकाध संस्कृत कवि ने ठीक यही शैली ऐसे श्लोकों में अपनाई, जैसे
तानि स्पर्शसुखानि ते च तरलस्निग्धा दृशोर्विभ्रमास्तद् वक्त्वाम्बुजसौरभं स च सुखस्यन्दी गिरां वक्रिमा। सा बिम्बाधरमाधुरीति विषयासंगेपि मन्मानसं
तस्यां लग्नसमाधि हनत विरहव्याधि: कथं वर्तते ।। इसमें यद्यपि वह तरलता नहीं है, जो प्राकृत में है। वह तरलता भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के इस संस्कृत घनाक्षरी छन्द में देखी जा सकती है, जो इस गाथा की परम्परा का एक सदस्य लगता है
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000
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