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श्रम किया हो। ___ एक तरफ से परम्परा में पाई जानेवाली उदात्त शास्त्रभक्ति, आर्थिक सहूलियत और बुद्धिशाली पंडितों की बड़ी तादाद के साथ जब आधुनिक युग के सुभीते का विचार करता हूँ, तथा दूसरी भारतवर्षीय परंपराओं की साहित्यिक उपासना को देखता हूँ और दूसरी तरफ दिगम्बरीय साहित्यक्षेत्र का विचार करता हूँ, तब कम से कम मुझको तो कोई संदेह ही नहीं रहता कि यह सब कुछ बदली हुई संकुचित या एकदेशीय मनोवृत्ति का ही परिणाम है।
मेरा यह भी चिरकाल से मनोरथ रहा है जितनी कि हो सके, उतनी त्वरा से दिगम्बर परम्परा की यह मनोवृत्ति बदल जानी चाहिए। इसके बिना वह न तो अपना ऐतिहासिक व साहित्यिक पुराना अनुपम स्थान संभाल सकेगी और न वर्तमान युग में सबके साथ बराबरी का स्थान पा सकेगी। यह भी मेरा विश्वास है कि अगर यह मनोवृत्ति बदल जाय, तो उस मध्यकालीन थोड़े, पर असाधारण महत्त्व के, ऐसे ग्रन्थ उसे विरासतलभ्य हैं, जिनके बल पर और जिनकी भूमिका के ऊपर उत्तरकालीन और वर्तमानयुगीन सारा मानसिक विकास इस वक्त भी बड़ी खूबी से समन्वित व संग्रहीत किया जा सकता है।
इसी विश्वास ने मुझ को दिगम्बरीय साहित्य के उपादेय उत्कर्ष के वास्ते कर्तव्यरूप से मुख्यतया तीन बातों की ओर विचार करने को बाधित किया है। (1) समंतभद्र, अकलंक, विद्यानंद आदि के ग्रन्थ इस ढंग से प्रकाशित किये जायें, जिससे
उन्हें पढ़नेवाले व्यापक दृष्टि पा सकें और जिनका अवलोकन तथा संग्रह दूसरी
परम्परा के विद्वानों के वास्ते अनिवार्य-सा हो जाये। (2) आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, अष्टशती, न्यायविनिश्चय आदि ग्रन्थों के अनुवाद
ऐसी मौलिकता के साथ तुलनात्मक व ऐतिहासिक पद्धति से किये जायें, जिससे यह विदित हो कि उन ग्रन्थकारों ने अपने समय तक की कितनी विद्याओं का परिशीलन किया था और किन-किन उपादानों के आधार पर उन्होंने अपनी कृतियाँ रची थीं तथा उनकी कृतियों में सन्निविष्ट विचार-परंपराओं का आज तक
कितना और किस तरह विकास हुआ है। (3) उक्त दोनों बातें की पूर्ति का एक मात्र साधन जो सर्वसंग्राही पुस्तकालयों का
निर्माण, प्राचीन भाण्डारों की पूर्ण व व्यवस्थित खोज तथा आधुनिक पठन प्रणाली में आमूल परिवर्तन है, वह जल्दी से जल्दी करना।
अंत में दिगम्बर परम्परा के सभी निष्णात और उदार पंडितों से मेरा नम्र निवेदन है कि वे अब विशिष्ट शास्त्रीय अध्यवसाय में लग कर सर्व संग्राह्य हिंदी अनुवादों की बड़ी भारी कमी को जल्दी से जल्दी दूर करने में लग जायें और प्रस्तुत कुमुदचन्द्र के संस्करण को भी भुला देने वाले अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का संस्करण तैयार करें।
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000