________________
शाखाओं के सुलभ दुर्लभ साहित्य का न तो अध्ययन ही करते और न उसके तत्त्वों पर अनुकूल प्रतिकूल समालोचना-योग्य गंभीर चिंतन करके अपना साहित्य समृद्धतर बना पाते। यह कल्पना करना निराधार नहीं कि उन समर्थ आचार्यों ने अपने त्याग व दिगम्बरत्व को कायम रखने की चेष्टा करते हुए भी अपने आस-पास ऐसे पुस्तक संग्रह किये. कराये कि जिनमें अपने सम्प्रदाय के समग्र साहित्य के अलावा बौद्ध और ब्राह्मण परंपरा के महत्त्वपूर्ण छोटे-बड़े सभी ग्रन्थों का संचय करने का भरसक प्रयत्न हुआ। वे ऐसे संचय मात्र से भी संतुष्ट न रहते थे, पर उनके अध्ययन-अध्यापनकार्य को अपना जीवनक्रम बनाये हुए थे। इसके बिना उनके उपलभ्य ग्रन्थों में देखा जानेवाला विचार-वैशद्य व दार्शनिक पृथक्करण संभव नहीं हो सकता। वे उस विशाल-राशि तत्कालीन भारतीय-साहित्य के चिंतन, मनन रूप दोहन में से नवनीत जैसी अपनी कृतियों को बिना बनाये भी संतुष्ट न होते थे। यह स्थिति मध्यकाल की रही। इसके बाद के समय में हम दूसरी ही मनोवृत्ति पाते हैं। करीब बारहवीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक के दिगम्बरीय साहित्य की प्रवृत्ति देखने से जान पड़ता है कि इस युग में वह मनोवृत्ति बदल गई। अगर ऐसा न होता तो कोई कारण न था कि बारहवीं शताब्दी से लेकर अब तक जहाँ न्याय, वेदान्त, मीमांसा, अलंकार, व्याकरण आदि विषयक साहित्य का भारतवर्ष में इतना अधिक, इतना व्यापक और इतना सूक्ष्म विचार व विकास हुआ, वहाँ दिगम्बर-परम्परा इससे बिलकुल अछुत-सी रहती। श्रीहर्ष, गंगेश, पक्षधर, मधुसूदन, अप्पयदीक्षित, जगन्नाथ आदि जैसे नवयुग प्रस्थापक ब्राह्मण विद्वानों के साहित्य से भरे हुए इस युग में दिगम्बर-साहित्य का उससे बिलकुल अछूत रहना अपने पूर्वाचार्यों की मनोवृत्ति के विरुद्ध मनोवृत्ति का सुबूत है। अगर वादिराज के बाद भी दिगम्बर-परम्परा की साहित्यिक मनोवृत्ति पूर्ववत् रहती, तो उसका साहित्य कुछ और ही होता। कारण कुछ भी हो, पर इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि पिछले भट्टारकों और पंडितों की मनोवृत्ति ही बदल गई और उसका प्रभाव सारी परंपरा पर पड़ा, जो अब तक स्पष्ट देखा जाता है और जिनके चिह्न उपलभ्य प्राय: सभी भाण्डारों, वर्तमान पाठशालाओं की अध्ययन-अध्यापन-प्रणाली और पंडित-मंडली की विचार व कार्यशैली में देखे जाते हैं। __ अभी तक मेरे देखने-सुनने में ऐसा एक भी पुराना दिगम्बर-भण्डार या आधुनिक पुस्तकालय नहीं आया जिसमें बौद्ध, ब्राह्मण और श्वेताम्बर परम्परा का समग्र साहित्य या अधिक महत्त्व का मुख्य साहित्य संगृहीत हो। मैंने दिगम्बर-परम्परा की एक भी ऐसी संस्था नहीं देखी या सुनी कि जिसमें समग्र दर्शनों का आमूल अध्ययन-चिंतन होता हो। या उसके प्रकाशित किये हुए बहुमूल्य प्राचीन ग्रन्थों का संस्करण या अनुवाद ऐसा कोई नहीं देखा, जिसमें यह विदित हो कि उसके सम्पादकों या अनुवादकों ने उतनी विशालता व तटस्थता से उन मूलग्रन्थों के लेखकों की भाँति, नहीं तो उनके शतांश या सहस्रांश भी
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000
00 25