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दिगम्बर-परम्परा के मनीषी और वर्तमान स्थिति
-पं० सुखलाल संघवी
दिगम्बर जैन-परम्परा में विगत दो शताब्दियों में अनेकों ऐसे स्वनामधन्य मनीषी साधक हुए हैं, जिनकी विद्वत्ता, गुणगरिमा तथा अनेकविध साहित्यिक-सामाजिक योगदान ने युगान्तरकारी इतिहास का निर्माण किया है। उनका यह अवदान जाति-सम्प्रदाय-क्षेत्र-काल आदि की संकीर्णताओं से ऊपर था, अत: सभी ने उसे स्वीकार किया और उसकी मुक्तकंठ से सराहना की है। आज की हमारी विद्वत्पीढ़ी एवं उसके उत्साहवर्धकों के लिए यश:काय मनीषी स्व० प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल जी संघवी की वैदुष्यपूर्ण, तथापरक एवं निर्भीक मार्गदर्शन देनेवाली लेखनी से प्रसूत यह आलेख गंभीरतापूर्वक पठनीय, मननीय तो है ही; पूर्वाग्रहों एवं वैचारिक संकीर्णताओं से ऊपर उठकर स्वीकारने एवं अपनाने योग्य भी है। यदि समय रहते हम नहीं चेते, तो हमारे पूर्वज विद्वानों ने वैदुष्य की जो यशस्वी परम्परा स्थापित की थी, उसकी प्राय: इतिश्री हम स्वयं देख लेंगे।
–सम्पादक
भारतवर्ष को दर्शनों की जन्मस्थली और क्रीडाभूमि माना जाता है। यहाँ का अपढ़जन भी ब्रह्मज्ञान, मोक्ष तथा अनेकान्त जैसे शब्दों को पद-पद पर प्रयुक्त करता है, फिर भी भारत का दर्शनिक पौरुषशून्य क्यों हो गया है? इसका विचार करना जरूरी है। हम देखते हैं कि दार्शनिक प्रदेश में कुछ ऐसे दोष दाखिल हो गए हैं जिनकी ओर चिन्तकों का ध्यान अवश्य जाना चाहिए। पहली बात दर्शनों के पठन-सम्बन्धी उद्देश्य की है। जिसे दूसरा कोई क्षेत्र न मिले और बुद्धि प्रधान आजीविका करनी हो तो बहुधा वह दर्शनों की ओर झुकता है। मानों दार्शनिक अभ्यास का उद्देश्य या तो प्रधानतया आजीविका हो गया है या वादविजय एवं बुद्धिविलास। इसका फल हम सर्वत्र एक ही देखते हैं कि या तो दार्शनिक गुलाग बन जाता है या सुखशील। इस तरह जहाँ दर्शन शाश्वत अमरता की गाथा तथा अनिवार्य प्रतिक्षण-मृत्यु की गाथा सिखाकर अभ्य का संकेत करता है वहाँ उसके अभ्यासी हम निरे भीरु बन गए हैं। जहाँ दर्शन हमें सत्य-असत्य का विवेक सिखाता है वहाँ हम उलटे असत्य को समझने में भी असमर्थ हो रहे हैं, तथा अगर उसे समझ भी लिया, तो उसका परिहार करने के विचार से ही काँप उठते हैं। दर्शन जहाँ दिन-रात आत्मैक्य या आत्मौपम्य सिखाता है वहाँ हम भेद-प्रभेदों को और भी विशेषरूप
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000
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