SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का प्रसार करना चाहिए । 'दीपार्चिषा किं तपनो न पूज्य : ' - ( स्वयम्भूस्तोत्र, 12/1 ) अर्थ:- क्या लोग सूर्य की आरती तुच्छ दीपक से नहीं करते? 'दीप - प्रकाशयोरिव सम्यक्त्व - ज्ञानयो:' – (पुरुषार्थसिद्धि - उपाय, 34 ) दीपक और प्रकाश अथवा प्रकाश और प्रताप ( उष्णता ) जैसे युगपत् होते हैं, उसीप्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान युगपत् होते हैं । अग्नि के लिये अनेकप्रकार के दृष्टांत और उपमायें भी जैनशास्त्रों में मिलती हैं, “यथात्र शुद्धिमाधत्ते स्वर्णमत्यन्तमग्निना । यथा— मन:सिद्धिं तथा ध्यानी योगिसंसर्गवह्निना ।। ” – ( ज्ञानार्णव, 15/30 ) अर्थ :जैसे जगत् में सुवर्ण अग्नि के संयोग से अत्यन्त शुद्ध हो जाता है, उसीप्रकार योगीश्वरों की संगतिरूपी अग्नि से ध्यानी मुनिराज अपने मन की शुद्धि को प्राप्त होता है । एक 'अग्निशिखा' नामक चारणऋद्धि का उल्लेख भी जैनशास्त्रों में मिलता है “ अविरहिदूण जीवे, अग्गिसिहा- संठिए विचित्ताणं । जं ताण उवरि गमणं, अग्गिसिहा- चारणा रिद्धी । । " - ( आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति, 2 / 150 ) अर्थ:- अग्निशिखाओं में स्थित जीवों की विराधना न करके उन विचित्र अग्नि - शिखाओं पर से गमन करना 'अग्निशिखा - चारणऋद्धि' कहलाती है। I लोकजीवन में अग्नि के महत्त्व को कभी नहीं नकारा जा सकता है । अन्तः रूप से भी अग्नि की भूमिका कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । शरीर के भीतर पाचन का कार्य 'जठराग्नि' करती है। यदि वह मन्द पड़ जाये, तो पाचन में गड़बड़ पैदा हो जाती है । मनुष्य बीमार रहने लगता है । शरीर के स्वास्थ्य के लिये पाचन ठीक रहना आवश्यक है। वह मूलाधार है । 'जठराग्नि' तीव्र होनी ही चाहिए। तीर्थंकर को अनन्त बल-वीर्य का धनी कहा जाता है । यह बल और वीर्य सिवाय अग्नि के और कुछ नहीं होता । जिसमें जितनी अधिक आग होती है, वह उतना ही अधिक बल-वीर्य का मालिक बन पाता है । वह व्यक्ति तेजवान् होता है। तेजस्वी व्यक्तित्व यदि एक ओर आसमुद्रान्त साम्राज्यों की स्थापना में सक्षम हो पाता है, तो दूसरी ओर मोक्षलक्ष्मी का वरण भी वही कर पाता है । सब कर्मों के छुटकारे को ही मोक्ष कहते हैं और समाधितेज से कर्मों से छुटकारा मिलता है। आचार्य समन्तभद्र ने 'स्वयम्भू स्तोत्र' में लिखा है- “स्वदोषमूलं स्वसमाधितेजसा, निनाय यो निर्दयभस्मसात्क्रियाम् । जगाद तत्त्वं जगतेर्पिनेऽञ्जसा, बभूव च ब्रह्म-पदामृतेश्वरः ।। 4 ।। ” जो अपनी भीतर की विकृतियों को समाधितेज से निर्दयतापूर्वक भस्म कर देता है, प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 2000 0019
SR No.521364
Book TitlePrakrit Vidya 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy