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।। अग्नि इसलिये जलती है कि लोग उसे देखकर सावधान हो जायें। अग्नि जीवन को
सतर्क बनाती है। इसी के लिए उसकी रचना हुई है, जलाने के लिए नहीं।" उनका कथन है कि “अग्नि इसलिए नहीं जलती कि वह सब कुछ निगल जाये; वह जलती है इसलिए कि चैतन्य में से धुआँ निकल जाये। अर्थात् चैतन्य में समाहित मिथ्यात्व का धुआँ उँट जाये, वह सम्यक्त्वी बन जाये।” यह काम वही कर सकता है, जिसमें तेज है। अग्नि में एक तड़प होती है, जिसके कारण वह अपने को अनंत की गोद में उत्सर्ग कर देती है, किन्तु ज्योतिहीन बनकर जीना नहीं चाहती। जीवन वही है, जिसमें एक महान उद्देश्य के लिये अपने को भी होम देने की तड़प होती है। जीवन वही है, जिसमें ज्ञान की ज्योति सदैव जलती रहती है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने दीपक की उदारता का वर्णन करते हुए लिखा है कि पतंगा दीपक की लौ पर गिरकर जान देने आता है, तो दीपक पतंगे से हिल-हिल कहता- “बन्धु ! तू वृथा क्यों दहता है?" यह दूसरी बात है कि “पतंगा गिरकर ही रहता है"; किन्तु दीपक उसे बार-बार इन्कार करता है।
अग्नि के सन्दर्भ में जैन-ग्रन्थों में कई प्रश्न महत्त्वपूर्ण ढंग से उठाये गये हैं। जैसे“अग्नि और ईंधन का क्या सम्बन्ध है?" अज्ञानीजन कहते हैं कि “जो अग्नि है, वह ईंधन है और जो ईंधन है, वह अग्नि है। पहले भी ऐसा था और अब भी ऐसा है, तथा आगे भी ऐसा ही होगा।" अर्थात् वे अग्नि और ईंधन को एक मानते हैं। इस सन्दर्भ में आचार्य अमृतचन्द्र का कथन द्रष्टव्य है- "नाग्निरिंधनमस्ति, नेधनमग्निरस्त्यग्निरग्निरस्तीधनमिंधनमस्ति । नाग्ने-रिंधनमस्ति नेधनास्याग्निरस्त्यग्नेरग्निरस्तीधनस्येंधनमस्ति।" इसका अर्थ है- अग्नि है, वह ईंधन नहीं है, ईंधन है, वह अग्नि नहीं है। अग्नि अग्नि है, ईंधन ईंधन है। अग्नि का ईंधन नहीं है और ईंधन की अग्नि नहीं है। निष्कर्ष है— परद्रव्य परद्रव्य ही है, वह मुझ-स्वरूप नहीं हो सकता। मैं तो मैं ही हूँ और परद्रव्य नहीं हो सकता हूँ; तथा परद्रव्य परद्रव्य ही है, वह आत्मरूप कभी नहीं हो सकता है। अर्थात् आत्मा आत्मा ही है, शरीर शरीर ही है। दोनों अनादिकाल से जुड़े हैं, किन्तु हैं पृथक्-पृथक् । आत्मा और शरीर के धर्म भिन्न-भिन्न हैं।
अग्नि के अनेकों प्रकार के दृष्टान्त भारतीय परंपरा में प्रचलित रहे हैं। यथा'अग्निरिव स्वाश्रयमेव दहन्ति दुर्जना:' – (नीतिवाक्यामृत, 1/4, पृ0 172) अर्थ:- दुष्ट व्यक्ति अग्नि के समान अपने आश्रयदाता को भी जला डालते हैं। - यह राग आग दहै सदा, तातें समामृत सेइये।'-(छहढाला) जैन-परम्परा में अग्नि के विषय में विविध कथन विविध सन्दर्भो में प्राप्त होते हैं
'दीवाउ दीवि पज्जलदि बत्ति' - (महापुराण, 2/20) अर्थ:- जैसे दीपक से दीपक में बाती जलती है, इसीप्रकार विद्वान् को आगे ज्ञान
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000