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________________ जैनाचार्यों ने तो अग्निकायिक जीवों की संख्या भी स्पष्टरूप से 'पडिक्कमण-सुत्त' (5) में निर्देशित की है____ “चरित्तायारो तेरसविहो परिहाविदो पंच महव्वदाणि, पंच समिदीओ, तिगुत्तीओ चेदि। तत्थ पढमं महव्वदं पाणादिवादादो वेरमणं, से पुढविकाइया जीवा असंखेंज्जासंखेंज्जा, आऊकाईया जीवा असंखेंज्जासंखेंज्जा, तेऊकाइया जीवा असंखेंज्जासंखेज्जा, वाऊकाइया जीवा, असंखेंज्जासंखेंज्जा, वणफ्फदिकाइया जीवा अणंताणंता।।" इसके अनुसार अग्निकायिक जीवों की संख्या असंख्यातासंख्यात है। यहाँ यह बात जानना भी आवश्यक है कि अग्नि की एक चिंगारी में असंख्य जीवों के असंख्य शरीर हैं। हम उन असंख्य जीवों के एकत्रीभूत पिण्ड को ही देख पाते हैं। एक जीव का शरीर तो इतना सूक्ष्म होता है कि हम उसे नहीं देख सकते। इसमें केवल स्पर्शन इन्द्रिय होती है, भले ही वह अन्य चार इन्द्रियों का काम एक ही इन्द्रिय से लेती हो; किन्तु है वह एकेन्द्रिय ही और स्पर्शन ही। यहाँ एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि पाँच इन्द्रियों में स्पर्शन को प्रथम स्थान क्यों दिया गया? इसका प्रथम कारण यह है कि स्पर्शन सर्वव्यापी है, जबकि अन्य इन्द्रियाँ ऐसी नहीं है। स्पर्शन-इन्द्रिय पूरे शरीर में फैली है, जबकि अन्य इन्द्रियाँ शरीर के एक भाग तक सीमित हैं अथवा शरीर के एक ही स्थान पर उपलब्ध हैं, अन्य स्थान पर वे कार्य नहीं कर सकतीं। दूसरा कारण है- विषय की दृष्टि में शक्तिशाली होना। किसी भी वस्तु का पहले स्पर्श होता है, फिर रस आदि की प्रवृत्ति होती है। विशेषावश्यक भाष्य' (गाथा 3001) में कथन है- “सब विषयों का ज्ञान होने की अर्हता के कारण एकेन्द्रिय होते हुए भी कुलवृक्ष पाँच इन्द्रियोंवाला है।" पतज्जलि के योगभाष्य' में लिखा है – “स्पर्शन इन्द्रिय प्रत्येक प्राणी के सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है।" इस एक स्पर्शनेन्द्रिय के साथ-साथ किसी न किसी रूप में | विचारशक्ति एवं निर्णय क्षमता भी उसके होती ही है, भले ही 'मन' उनके नहीं होता है। __ आगमकारों के एक कथन के कारण तीसरा प्रश्न समुत्थित हो उठा है। आगमकार । साक्षात् द्रष्टा थे। उन्होंने निरूपित किया कि एकेन्द्रिय जीवों के मतिज्ञान तो होता ही है, श्रुतज्ञान भी होता है। श्रुतज्ञान का सम्बन्ध भाषा, श्रोत्रेन्द्रिय और मन की विकसित अवस्था से है, फिर वह एकेन्द्रिय में कैसे होता है? विज्ञान के कुछ प्रयोगों ने इस सच्चाई को सिद्ध कर दिया है। एक वृक्ष पर 'पॉलीग्राफ' यन्त्र लगाया गया। माली आया, तो उसमें कोई कम्पन नहीं हुआ; किन्तु एक लकड़हारा अपने कन्धे पर कुल्हाड़ी रखे आया, तो पॉलीग्राफ' की सुई भय के बिन्दु पर आकर काँपने लगी। इससे सिद्ध है कि वनस्पति में संवेदन है, स्मृति है, पहचान है और दूसरों के मनोभावों को जानने की क्षमता है। —ये सब श्रुतज्ञान के विषय हैं। Maharan 10 16 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000
SR No.521364
Book TitlePrakrit Vidya 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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