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लिखा है कि “वनस्पति में भी मनुष्य के नाड़ी-संस्थान जैसा ही कोई शक्तिशाली तत्त्व विद्यमान है।"
वनस्पति की ही तरह जैनाचार्य अग्नि को भी जीव मानते हैं। उन्होंने उसे एकेन्द्रिय ' (स्पर्शन-इन्द्रियवाला) जीव कहा है। अग्नि के चार भेद होते हैं- 1. अग्नि. 2. अग्निजीव, 3. अग्निकायिक और 4. अग्निकाय। 'अग्निजीव' वह है, जो पूर्वकाय को छोड़कर अग्निकायिक पर्याय को धारण करने के लिए विग्रहगति' में होता है। अर्थात् जो जीव अभी अग्निकायिक बन नहीं पाया है, बननेवाला है। जिसकी पर्याय अग्निकायिक बनने के लिए निर्धारित हो चुकी है और जो अग्निरूप धारण करनेवाला है; किन्तु अभी तक अग्निरूप हो नहीं सका है। वह चल पड़ा है, रास्ते में है, पहुँचनेवाला है; ऐसा जीव 'अग्निजीव' कहलाता है। तथा वह जीव जब अग्नि को शरीररूप से ग्रहण कर लेता है, तब वह 'अग्निकायिक' कहलाता है अर्थात् अग्नि ही जिनका शरीर है, काया है. वे अग्निकायिक हैं। तथा जब जीव अग्नि से निकल जाता है, तब वह 'अग्निकाय' कहलाता है, जैसे मृतक शरीर । मुर्दे में आग लगाई जाती है। आग धू-धू कर जलती है। शरीर राख हो जाता है। और उसका जीव किसी अन्य पर्याय में प्रविष्ट होने के लिए चला जाता है; तब वह यह 'अग्निकाय' संज्ञा से अभिहित होता है।
यहाँ जैन-सन्दर्भ में अग्नि को समझ लेना अत्यावश्यक है। विक्रम की सातवीं-आठवीं सदी के दार्शनिक आचार्य भट्टाकलंक ने लिखा है कि “अग्निकायिक जीव अत्यधिक कृपालु होता है।” उनका कथन है— “नव वै प्रदीप: कृपालुतयात्मानं परं वा तमसो निवर्तयति" अर्थात् क्या आप नहीं जानते कि दीपक अपनी दयालुता के कारण ही स्व-पर के अन्धकार को दूर करता है। एक मनुष्य दीपक लेकर अन्धकार में जाता है और वहाँ प्रकाश फैल जाता है, जिससे वहाँ मौजूद सभी वस्तुओं को मनुष्य देख सकता है। ___ जैन-परम्परा में अग्नि में जीवत्वशक्ति ही मात्र नहीं मानी गयी है, अपितु उसका संसारी प्राणी के रूप में विधिवत् वर्गीकरण करके परिचय प्रस्तुत किया गया है। तदनुसार " अग्नि के चार प्राण होते हैं— कायबलप्राण, स्पर्शनेन्द्रियप्राण, आयुप्राण (उत्कृष्ट तीन दिन या जघन्य अंतर्मुहूर्त), और श्वासोच्छ्वासप्राण।।
जैन-परम्परा में शरीर की आंतरिक अस्थि-मज्जागत बंध-विशेष को संहनन' कहा गया है। प्रत्येक संसारी प्राणी के कोई न कोई ‘संहनन' अवश्य होता है। 'अग्नि' के 'संहनन' के बारे में बताते हुए लिखा है
'एकेन्द्रिय..... असंप्राप्तासपाटिकासंहननं भवति। -(तत्त्वार्थवृत्ति, 8/11)
अर्थ:- अग्नि के एक स्पर्शनेन्द्रिय तथा असंप्राप्तासृपाटिका' नामक कोमल संहनन है। 'अग्नि' का अर्थक्रियाकारित्व
जैन-परम्परा में प्रत्येक पदार्थ में 'अर्थक्रियाकारित्व' की प्रक्रिया मानी गयी है। इस
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000