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इसीकारण जैन - परम्परा में यह भी कह दिया कि जो अग्निकायिक जीवों की सत्ता नहीं मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है तथा सम्यग्दृष्टि जीव इनकी सत्ता को अवश्य मानते “जे तेउकाय जीवे अदिसद्दहदि जिणेहि पण्णत्तं । अत्थि । । "
उवलद्धपुण्णपावस्स
तस्सुवट्ठाणा — (आचार्य कुन्दकुन्द, मूलाचार 10/140 ) अर्थ :जो तीर्थंकर देव ने कहे हुये अग्निकायिक जीवों को और तदाश्रित सूक्ष्म जीवों के ऊपर श्रद्धान रखता है तथा पुण्य-पाप का स्वरूप जानता है, वह मुक्ति-मार्ग में स्थिर रहता है ।
महर्षि मनु ने अग्नि को 'वैराग्य का प्रतीक' भी बताया है
'अनग्निरनिकेतः स्यात्' – (मनुस्मृति, 6/43 )
अर्थ:- अग्नि वैराग्य का रूप है ( अर्थात् विरक्त साधुजनों को अग्नि प्रज्वालन
नहीं करना चाहिए)।
महात्मा बुद्ध ने भी लिखा है कि वे साधु जीवन में अग्नि नहीं जलाते थे“सो तत्तो सो सीनो एको मिसनके वने ।
नग्गो न च आग असीनो एकनापसुतो मुणीति । ।”
- ( मज्झिमनिकाय, महासीहनाद सुत्त, 12 ) अर्थ:— कभी गर्मी कभी ठंडक को सहता हुआ भयानक वन में नग्न रहता था। मैं आग से तापता नहीं था । मुनि अवस्था में ध्यान में लीन रहता था ।
इस बात की पुष्टि इस वैदिकपुराण में भी मिलती है
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'वह्नौ सूक्ष्मजीववधो महान्ं' – (स्कन्दपुराण, 59/9 ) १) अर्थ:- अग्नि जलाने में अनेकों सूक्ष्म जीवों का महान् वध होता है ।
यह कथन यहाँ विशेषत: इसलिये भी मननीय है कि यह एक वैदिक पुराणग्रंथ का उल्लेख है ।
जब डॉ॰ जगदीशचन्द्र बसु ने वनस्पति में जीव होने की बात कही, तो उन्हें इस स्थापना का जनक ही मान लिया गया; किन्तु उनसे सहस्रों वर्ष पूर्व जैन आचार्यों ने वनस्पति को 'जीवकाय' कहा था । कहा ही नहीं, अमल भी किया था । जैन लोग हरी सब्जी खाने का निषेध 'अष्टमी' और 'चतुर्दशी' तिथियों को आज भी करते हैं । वे उसमें एकेन्द्रिय जीव मानते हैं। उनका यह मानना परम्परानुमूलक है, किसी आधुनिक वैज्ञानिक की स्थापना का परिणाम नहीं । यह दूसरी बात है कि उनकी परम्परा स्वयं अपने में आज के वैज्ञानिक तथ्यों पर खरी उतरती है ।
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डॉo बेवस्टर की स्थापना है कि "वनस्पति में अत्यन्त शक्तिशाली संवेदना होती है।” रूस के प्रसिद्ध मनोविज्ञानी बी०एन० पुस्किन ने अपने अनेकानेक प्रयोगों के बाद
प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर '2000
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