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________________ O Dear Sir Jain, It was indeed nice to get a copy of the ‘Prakrit Vidhya' so meticulously and painstakingly edited by you and other scholars of Prakrit and Jainology. The literary, linguistic, philosophical and religious themes of the research articles throw fresh light on the chosen topics. The volume also takes into care original composition and book reviews thus making it holistic representative of studies in Prakrit. I thank you and congratulate you on this academic endeavour. I write a verse to say my feelings for the journal: विद्या प्राकृतभारतीविकसिता कालाच्चिरात्सञ्चिता, शास्त्रैस्तत्त्ववितानतथ्यकथनैस्त:: समुन्मीलिता। सत्काव्यकुसुमैर्विभूषिततनू सद्धर्मसन्धायिनी, सैषा प्राकृतविद्यया मतिपथे पान्यायतां श्रेयसे ।। Thanking you again and with best personal regards. -S.M. Mishra, Deptt. of Sanskrit, Kurukshetra ** ० जुलाई-सितम्बर 2000 का 'प्राकृतविद्या' अंक लाइब्रेरी में पढ़ने को मिला, आवरण पृष्ठ देखकर एवं कमण्डलु में ही भूमण्डल का अहिंसक अर्थशास्त्र' स्वरूप सटीक 'व्याख्या पढ़कर बहुत अच्छा लगा। आपको विशेष बधाई। 'समाजधर्म' पर सम्पादकीय बहुत उल्लेखनीय है। वास्तव में प्रत्येक श्रावक-श्राविकाओं को भावानुराग, प्रेमानुराग, मज्जानुराग एवं धर्मानुराग युक्त होना चाहिए तभी जिनशासन की प्रभावना में दिनोंदिन उत्तरोत्तर वृद्धि होगी। “येन केन प्रकारेण जैनधर्मः प्रवर्धत” का व्रत जैनसमाज के प्रत्येक व्यक्ति को अंगीकार करना ही होगा। इसका परिणाम भी बहुत भव्य है— “रुचि: प्रवर्तते यस्य जैन-शासन-भासने। हस्ते तस्य स्थिता मुक्तिरिति सूत्रे निगद्यते ।।" भगवान् जिनेन्द्र के शासन की प्रभावना करने की जिस भव्यजीव की रुचि/इच्छा प्रवर्तित होती है, उसके लिए मुक्ति तो हाथ में ही रखी है— ऐसा सूत्र में कहा है। इसी शुभ भावना के साथ। -डॉ० मुन्नी पुष्पा जैन, वाराणसी ** ० आपके कुशल निर्देशन में प्रकाशित 'प्राकृतविद्या' को विगत दो वर्षों से निरन्तर पढ़ने का सुयोग प्राप्त हो रहा है। समकालीन जैन साहित्य से सम्बन्धित ज्ञान में समृद्धि का यह महत्त्वपूर्ण स्रोत है। जुलाई-सितम्बर 2000 ई० के अंक के मुखपृष्ठ पर अंकित कमण्डलु का चित्र (अहिंसक अर्थशास्त्र कमण्डलु में ही भूमण्डल का अर्थशास्त्र है – इसे संदेश के साथ) सम्पादक मण्डल के सूक्ष्म-चिन्तन व राष्ट्रिीय चेतना का द्योतक है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मानव-जाति को इससे प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिये। इस सराहनीय प्रयास के लिये आप शतश: धन्यवाद के पात्र हैं। -प्रो० (श्रीमती) उर्मिला आनन्द, आगरा ** प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000 1099
SR No.521364
Book TitlePrakrit Vidya 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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