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अभिमत
० आपसे शिमला में भेंट हुई थी, उसी समय आपकी सक्रियता, वैदुष्य और जयपुर के कार्यकाल के बारे में ज्ञात हुआ। डॉ० हरिराम आचार्य जी ने भी प्राकृत के क्षेत्र में आपके एवं आपकी संस्था के द्वारा किये जा रहे रचनात्मक प्रमाणिक कार्यों के बारे में बताया था। 'प्राकृतविद्या' बहुत संग्रहणीय सामग्री दे रही है, यह मैंने पिछले दो-एक अंकों के अध्ययन से पाया। कुछ समय पूर्व मुझे कुछ अंक मिले थे। शायद आपके ही सौजन्य से। आप इसे नये आयाम दे रहे हैं —यह मुझे मालूम है। -प्रो० कलानाथ शास्त्री, जयपुर **
० 'प्राकृतविद्या' वर्ष 12, अंक 2 मिला, बहुत-बहुत धन्यवाद। आपका यह प्रकाशन बहुत मूल्यवान है। जितने लेख प्रकाशित हुए हैं, वे सभी महत्त्वपूर्ण हैं। 'अहिंसा ही विश्व में शांति का उपाय' —यह श्रीमती इंदु जैन का लेख प्रभावी और उत्तम है। सामान्यत: सभी लेख मूल्यवान् हैं।
__डी०एम० गोरदालिया, श्री वर्द्धमान जैन धार्मिक लाइब्रेरी, अमरेली (गुजरात) ** ० 'प्राकृतविद्या' का जुलाई-सितम्बर 2000 अंक प्राप्त हुआ। 'जैनदर्शन में जिन' शब्द की व्याख्या' डॉ० दयाचन्द्र साहित्याचार्य का लेख बहुत अच्छा ज्ञानवर्धक लगा जिसमें 'जिन' शब्द के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया गया है। बधाई।
-नथमल कोठारी, बालोद (छत्तीसगढ़) ** Sir, I Asa Ram Jain, am grateful for publishing quarterly "PrakritVidhya" Journal, which is not only very-very authentic but also contains very useful data regarding various 37241 Ha subjects, which is not easily available elsewhere.
In this connection, I am inviting your kind attention to the Chapter “णमोकार मंत्र की जाप-संख्या और पंच-तंत्री वीणा" Pages 36-39 in April-June, 2000 Edition. Total of all the Japs of Maha-Mantra (p.37) is not correct. It shall be 4,13,400 and not 3,73,400.
It is requested that necessary correction may kindly be notified to all concerned. -Asa Ram Jain, Doorbhash Nagar, Bareli (U.P.) **
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000