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________________ 0 प्राकृतविद्या' का जुलाई-सितम्बर 2000 ई० का अंक हाथ में है। पत्रिका के सभी लेख एवं सम्पादकीय प्रेरणाप्रद, शिक्षाप्रद एवं मननीय है। मुख्य पृष्ठ का चित्र 'अहिंसक अर्थशास्त्र: कमण्डलु में ही भूमण्डलं का अर्थशास्त्र है' अत्यंत प्रेरणाप्रद और दिशाबोधक है। कमण्डलु के चित्र ने बिना कुछ कहे, बहुत कुछ कह दिया। इस कल्पनाशीलता एवं संयोजन हेतु सादर नमन। श्रीमती बिन्दु जैन की रचना शिक्षा व संस्कृति के उत्थान की महान् प्रेरिका चिरोंजाबाई' पढ़ कर दो युगों के बीच सामाजिक/धार्मिक दृष्टिकोण में आये बदलाव का अंर्तहृदय पटल पर सहज ही चित्रित हो गया। माँ चिरोंजाबाई के धर्मपुत्र पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी के युग में बुन्देलखण्ड की शुद्धाम्नायी जैन संस्कृति एवं समाज पल्लवित-पुष्पित हुअी थीं। उनके महत् प्रयासों से बुन्देलखण्ड एवं वाराणसी में विद्यालय, महाविद्यालय, जैन-पाठशालायें, गुरूकुल एवं आश्रमों की स्थापना में श्रीमंतों एवं जन-सामान्य ने अपने धन का सदुपयोग कर, बुन्देलखंड को पंडित रत्नों की खान और श्रावकों की साधना-भूमि बना दिया था। प्रत्येक धार्मिक आयोजन से प्राप्त धनराशि का उपयोग जैनशिक्षा एवं समाज कल्याण में होता था। यह सब परमसम्मानीय चिरोंजाबाई की धर्म-लगन एवं उनके अजैन मूल के धर्मपुत्र श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी के जैनधर्म एवं जैन-संस्कृति के प्रति असीम प्रगाढ़ प्रेम का परिचायक था। उनके इस महान् योगदान से जैनसमाज सदैव उऋणी रहेगा। उन्होंने यह कार्य निस्पृह एवं निर्मानभाव से किया। कहीं कोई शिलालेख एवं सम्मान आदि प्राप्त नहीं किया। वे जन-जन के हृदय पटल पर सदैव को उत्कीर्ण हो गये थे। ___ आप से अनुरोध है कि जैन इतिहास के सृजक महानुभावों के पर-कल्याणपरक, राष्ट्रहितकारक कृत्यों/सेवाओं/बलिदान एवं दक्षिण भारत की निष्पही संस्कृति की गाथाओं को भी प्राकृतविद्या में स्थान देते रहें, तो महान् कृपा होगी। -डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल, अमलाई. (म०प्र०) ** ० जुलाई-सितम्बर 2000 प्राकृतविद्या' अंक प्राप्त हुआ। आवरण पृष्ठ में जिस गूढरहस्य को सामने रखकर दिया गया है, वह दूरदर्शिता का परिचायक है। सम्पादकीय में विशिष्ट व्यक्तियों पर दृष्टिपात करने सामाजिक मूल्यों की प्रतिबद्धता का संकेतात्मक विवरण मिलता है। चिरोंजाबाई तथा आचार्य शान्तिसागर संबंधी विवरण आत्मिक होकर अमल करने योग्य है। प्राकृतछंद-गाहा एक नवीन खोजपूर्ण स्थिति सामने रखता है। दशलक्षणधर्म-संबंधी लेख का विशद विश्लेषण प्रभावोत्पादक होकर मार्गदर्शक का कार्य करता है - अनुकरणीय है। जैनदर्शन में 'जिन' शब्द की व्याख्या-सम्बन्धी विश्लेषण ग्रहण करने योग्य है। साथ ही 'पवयणसार' के मंगलाचरण का समीक्षात्मक मूल्यांकन विचारणीय है। इसीप्रकार आषाढ़ी पूर्णिमा संबंधी विवेचन संक्षिप्त होते हुए भी अत्यन्त सारगर्भित है। ____ अंक की अन्य सामग्री भी सामयिक होकर पठनीय है। इसप्रकार अंक सुन्दर बन पड़ा है। बधाई स्वीकार कीजिए। सच तो यह है कि 'प्राकृतविद्या' के सभी अंक संग्रहणीय होते हैं। अनेक नवीन बातें सामने रखकर बौद्धिक विकास में सहायक होते हैं —यह बड़ी 00 100 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000
SR No.521364
Book TitlePrakrit Vidya 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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