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________________ इनकी सावधानीपूर्वक रक्षा करनी चाहिये ।' यह विचारकर उसने वे पाँचों दाने सफेद मलमल के कपड़े में बाँधकर अपनी रत्नमंजूषा में रखकर तिजोरी में सुरक्षित रख दिये । सबसे छोटी पुत्रवधु का नाम 'रोहिणी' था । वह बड़ी बुद्धिमती थी । उसने सोचा कि धान के दानों को यदि कितनी ही सुरक्षा में रखा जाये, समय के साथ ये धीरे-धीरे बेकार हो जायेंगे; जबकि यदि इन्हें खेती करके बढ़ाया जाये, तो इनकी न केवल संख्या बढ़ेगी, अपितु प्रतिवर्ष नयी फसल होने से ये खराब भी नहीं हो सकेंगे। यह विचारकर उसने अच्छी वर्षा होने पर खेत में छोटी-सी क्यारी बनवाकर बो दिया | पौधे तैयार होने पर उन्हें और अच्छी क्यारी में रोपवाकर उनकी देखभाल की। उनमें प्रत्येक पौधे में कई-कई स्वस्थ धान निकले । उसने वे सुरक्षित संभालकर रखे तथा अगले वर्ष वर्षाऋतु में उन्हें खेत में फिर से बो दिया। अब और भी अधिक कई गुने धान निकले। इसीप्रकार तीसरे और चौथे वर्ष भी बोने से उन पाँच धानों के कई घड़े भर धान बन गये । चार वर्ष बाद नगरसेठ 'धन्य' ने सोचा कि 'पता तो करूँ बहुओं ने मेरे द्वारा दिये गये धान के दानों का क्या किया?' ऐसा विचारकर उसने पुन: सभी परिजनों के सामने चारों बहुओं को बुलवाया। और एक-एक करके उन बहुओं से अपने द्वारा दिये गये धान के दानों के बारे में पूछा I बड़ी बहू 'उज्झिका' बोली कि “पिताजी ! वे दाने तो मैंने फेंक दिये थे, क्योंकि घर के अन्न-भंडार में भरपूर धान भरा हुआ था । उसी में से लेकर धान के पाँच दाने मैं आपको लौटाने लायी हूँ।” उसकी बात सुनकर उस सेठ ने उसे घर की सफाई का काम सौंप दिया। इसके बाद मंझली बहू 'भोगवती' का नंबर आया, तो उसने कहा कि “पिताजी ! मैंने तो वे दाने आपका प्रसाद समझकर तभी खा लिये थे ।” उसका उत्तर सुनकर नगरसेठ ने उसे रसोईघर के कामों की ज़िम्मेवारी दे दी । फिर सँझली बहू ‘रक्षिका' ने अपनी बारी आने पर तत्काल अपनी रत्नमंजूषा से निकालकर वे पाँचों धान के दाने अत्यन्त विनयपूर्वक अपने ससुर की हथेली पर रख दिये । धान के दानों को सुरक्षित देखकर भी 'धन्य' सेठ के मन में अधिक खुशी नहीं हुई, और उसने तीसरी बहू को तिजोरी की चाबियाँ सौंपकर उसकी देखभाल के लिए लगा दिया । अन्त में छोटी बहू 'रोहिणी' ने धान के भरे हुए घड़े लाकर अर्पित किये और पाँच दानों से घड़ों धान होने का वृत्तान्त सुनाया । जिसे सुनकर वह नगरसेठ 'धन्य' अत्यन्त हर्षित हुआ और उस छोटी बहू को उसने 'गृहस्वामिनी' का पद प्रदान किया । किसी विवेकी ने इस सारे घटनाक्रम को देखा और कहा कि “कण- त्यागी क्षण- त्यागी, कुतो विद्या कुतो धनम् ।” अर्थात् चाहे अमाज या समय, उसकी उपेक्षा करने वाले या नष्ट करने वाले को न तो विद्या की प्राप्ति होती है और न ही धन मिलता है । प्राकृतविद्या← जुलाई-सितम्बर 2000 00 72
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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