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दशलक्षण धर्म
-डॉ० सुदीप जैन 'धर्म' शब्द 'धारण किये जाने' या 'अपनाये जाने' के अर्थ का सूचक है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि धर्म मात्र चर्चा' का नहीं, अपितु चर्या' (आचरण) का विषय है। तथा इसे वस्त्र-परिधान आदि की तरह ऊपर से ओढ़कर अंगीकार भी नहीं करना है, अपितु अपने स्वाभाविक गुणों को शुद्धरूप में प्रकट करना है। दर्पण पर लगी हुई कालिमा को हटाकर जैसे उसकी स्वाभाविक निर्मलता प्रकट की जाती है, उसीप्रकार आत्म-परिणामों में छाये क्रोधादि विकारों को हटाकर क्षमादि दशलक्षणमयी स्वाभाविक निर्मलता का प्रकट होना ही आत्मधर्म है। इसीलिये जैनपरम्परा में धर्म की चर्चा के प्रसंग में उत्तमक्षमादि दशलक्षणों की चर्चा भी अनिवार्यत: की ही जाती है। अस्तु, जैनदृष्ट्या धर्म का स्वरूप एवं दशलक्षण धर्म का परिचय यहाँ संक्षेपत: प्रस्तुत है।।
जैनदर्शन में 'धर्म' की परिभाषा या विवेचन तीन स्तरों पर प्राप्त होता है
1. स्वरूपत:, 2. फलत:, 3. प्रयोगतः । 1. स्वरूपतः धर्म की परिभाषा
(क) “भाउ विसुद्धउ अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु।" – (परमात्मप्रकाश, 2/68) अर्थ:—आत्मा का अपना शुद्धभाव ही धर्म है।
(ख) “निश्चयेन संसारे पतन्तमात्मानं धरतीति विशुद्धज्ञान-दर्शन-लक्षणनिजशुद्धात्म-भावनात्मको धर्म:, व्यवहारेण तत्साधनार्थं देवेन्द्र-नरेन्द्रादि-वन्द्यपदे धरतीत्युत्तमक्षमादि....दशप्रकारको धर्मः।" -(द्रव्यसंग्रह, गाथा 35 की टीका) ___ अर्थ:- निश्चय से जो संसार में गिरते हुए आत्मा आत्मा को विशुद्ध ज्ञानदर्शनलक्षणवाली निजशुद्धात्मभावना में धारण करता है, वह 'धर्म' है। तथा व्यवहार से उसकी प्राप्ति के लिए इन्द्र-चक्रवर्ती आदि से वन्दित उत्तमक्षमा आदि दशप्रकारोंवाला धर्म है। (ग) “वस्तुस्वभावत्वाद्धर्म: शुद्धचैतन्य-प्रकाशनमित्यर्थः ।"
-(प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका, गा० 78) अर्थ:- वस्तु का स्वभाव अर्थात् शुद्ध-चैतन्य का प्रकाशन की 'धर्म' है।
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000