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________________ उपयोगी एवं इन चारों अनुरागों का साधक एक और अनुराग भी होता है, जिसे 'आत्मानुराग' कहा गया है। 'आत्मानुरागी' सज्जन आत्मिक परिष्कार/सुधार के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। इसकी प्रेरणा देते हुये ज्ञानीजन लिखते हैं "आत्मानं स्नापयेन्नित्यं ज्ञानवारिणा चारुणा। येन निर्मलतां याति जनो जन्मान्तरेष्ववि।।" - (सारसमुच्चय) अर्थ:- अपने आत्मतत्त्व को सम्यग्ज्ञानरूपी निर्मल जल से निरन्तर प्रक्षालित करते रहना चाहिये। ऐसा करने से यह जीव जन्मान्तरों तक निर्मलता को प्राप्त रहता है। ___ आज उत्तरोत्तर संकीर्ण एवं पथच्युत होते जा रहे सामाजिक ढाँचे में सामाजिकता के इन मूलभूत तत्त्वों का चिंतन हमें पुन: एक नयी ऊर्जा, नयी स्फूर्ति के साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर होने में मदद करेगा और साथ ही सम्पूर्ण मानव-समुदाय के साथ-साथ प्राणीमात्र को एक उज्ज्वल भविष्य का पथप्रदर्शन करेगा। यदि हमारे मन में प्राणीमात्र के प्रति ऐसी उदात्त भावनायें आ जायेंगी, तो हम विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी अनुकूलता का अनुसंधान कर सकेंगे। ___ यहाँ एक विचारार्थ उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूँ। सिंहनी जैसी क्रूरसत्त्वा अपने शांवक उसी जबड़े में पकड़ती है, जिससे वह अन्य प्राणियों को नृशंसतापूर्वक वध करती है; फिर भी अपनत्व के कारण उस शावक को उसी जबड़े में पकड़े जाने पर भी जरा भी कष्ट नहीं होता, कहीं खरोंच तक नहीं आती है। ध्यान रखें, जबड़ा वही है, किंतु अनुराग के कारण वही भक्षक के स्थान पर रक्षक बन सकता है। यदि हम ऐसे ही उदार अनुराग भावना का प्रसार करेंगे, तो सर्वत्र सौहार्द एवं उल्लास के वातावरण में सद्गुणों एवं सद्भावनाओं का प्रसार होगा। हाल के लगभग 100 वर्षों में ऐसे कई समाजशास्त्री महानुभाव इस देश में जैनसमाज में भी हुए हैं, जिन्होंने अपने यशस्वी कार्यों से सामाजिक संघटना के पूर्वोक्त चारों अनुरागों को चरितार्थ करके दिखाया था। उनसे अन्य शास्त्राभ्यासी विद्वानों की तुलना में समाज में सामाजिक सौहार्द का वातावरण निर्माण तथा धर्मप्रभावना का कार्य अधिक परिमाण में तो हुआ ही, उसकी सर्वमान्यता एवं निर्विवादता भी रही। ऐसे अकृत्रिम वात्सल्य के धनी मनीषी समाजवेत्ताओं में स्वनामधन्य क्षु० गणेश प्रसाद जी वर्णी, पं० चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ, पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य, पं० जगन्मोहनलाल जी शास्त्री आदि प्रमुख रहे। वर्तमान में इसी क्रम में वयोवृद्ध विद्वान् पं० नाथूलाल जी संहितासूरि, इन्दौर (म०प्र०) अग्रगण्य हैं। इनका जीवन हमें उक्त चारों अनुरागों के अनुपालन एवं समाज के प्रति दायित्वों को भली-भाँति अभिव्यक्त करने के लिये अनुपम आदर्श है। सामाजिकता के इस आध्यात्मिक उत्कर्ष को समझकर एवं अपनाकर ही हम अपने आपको सही अर्थों में 'सामाजिक' कहलाने के अधिकारी बन सकते हैं। 008 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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