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________________ 3. अस्थिमज्जाबुरागी:- जैसे कोई अपनी अस्थि (हड्डी) से कभी मज्जा को अलग नहीं कर सकता है; अथवा अस्थि स्वयं मज्जा को नहीं छोड़ती है, उसीप्रकार विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी सज्जनों, साधर्मीजनों एवं धर्मात्माओं का साथ नहीं छोड़नेवाले 'अस्थिमज्जानुरागी' कहलाते हैं। इस विषय में आचार्य अमितगति ने पाण्डवों का दृष्टान्त आदर्शरूप में प्रस्तुत किया है। जैसे पाण्डवों ने बचपन से लेकर साधना की दशा तक कभी एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ा। द्यूतक्रीड़ा में हारने पर युधिष्ठिर को भला-बुरा नहीं कहा, अपितु पाँचों भाईयों ने मिलकर वनवास भोगा तथा राज्य मिलने पर भी पाँचों भाई समान अधिकार एवं प्रेम के साथ रहे। यहाँ तक कि दीक्षाप्रसंग में भी पाँचों भाई साथ दीक्षित हुये एवं उन्होंने साथ ही 'शत्रुजयगिरि' पर तपस्या की। संसार से लेकर मोक्षमार्ग तक अटूट सम्बन्ध का इससे अधिक अनुकरणीय दृष्टान्त और क्या हो सकता है? विशेषत: इस युग में, जब जरा-जरा बात के लिए भाई-भाई में कोर्ट-कचहरी एवं कहा-सुनी की नौबत आ जाती है, यहाँ तक कि मारपीट एवं अन्य आपराधिक घटनायें भी घट जाती हैं; समाज के लोगों के लिए पाँचों पाण्डवों के 'मज्जानुराग' का अनुकरण पारिवारिक एवं सामाजिक संघटनात्मक ढाँचे को सुदृढ़ एवं आदर्श बना सकता है। ___4. प्रेमानरागी:- सामान्यत: संसारी प्राणी अन्य सांसारिक संबंधियों एवं वस्तुओं के प्रति अनुरक्ति/आकर्षण को प्रम' की संज्ञा देते हैं; किंतु इसको इन चारों अनुरागों में कहीं कोई स्थान नहीं दिया गया है। इसके विपरीत भौतिक विषयभोगों से हटाकर आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर दृढ़ करने को ही यहाँ प्रम' माना गया है और इसे चरितार्थ करनेवाले महानुभाव को प्रमानुरागी' कहा गया है। __ इस विषय में आचार्यदव ने मणिचूल' नामक देव एवं 'सगर चक्रवर्ती' का दृष्टान्त दिया है। मणिचूल देव अपने मित्र सगर चक्रवर्ती को सांसारिक विषय-भोगों एवं राजपाट से विरक्त हो संयम अंगीकार करने की बार-बार प्रेरणा देता था; किन्तु चक्रवर्ती के भोगों एवं सुख-सम्पत्ति में सगर का मन ऐसा रमा हुआ था, कि वह उसकी एक भी बात पर ध्यान नहीं देता था। तो मणिचूल देव ने चक्रवर्ती सगर को संसार से विरक्त करने के लिए एक चाल चली। उसने सगर चक्रवर्ती के सारे पुत्रों को अपनी शक्ति से मुर्छित कर दिया। सगर चक्रवर्ती ने उन्हें मरा हुआ जानकर संसार की क्षणभंगुरता का चिन्तन करते हुए वैराग्य अंगीकार कर लिया। तत्पश्चात् मणिचूल नामक उस देव ने उन पुत्रों को पुन: स्वस्थ कर दिया। इसप्रकार कृत्रिम जीवनभय आदि दिखाकर मणिचूल देव ने अपने मित्र सगर चक्रवर्ती को जिस तरह वैराग्य-मार्ग पर स्थिर किया - उसे प्रमानुराग' का आदर्शरूप माना गया है। इसे ही सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में स्थितिकरण अंग' भी कहा गया है। इनके अतिरिक्त निस्पृह साधकों से लेकर सामान्य सज्जनों तक सभी के लिये प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000 007
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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