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________________ बीसवी सदी के महान् अध्यात्म साधक आचार्य शान्तिसागर जी की सामाजिक चेतना -धर्मेन्द्र जैन बीसवीं शताब्दी में लुप्तप्रायः हो गयी दिगम्बर जैन श्रमण परम्परा को जिन्होंने पुनरुज्जीवित किया और युगानुरूप शास्त्रानुकूल प्रयोगों के द्वारा उसे एक नई दिशा देने का महनीय कार्य जिनके पावन श्रामण्य में सम्पन्न हुआ, ऐसे महान् तपस्वी साधक आध्यात्मिक प्रज्ञाश्रमण प्रात:स्मरणीय आचार्यश्री शांतिसागर जी मुनिराज के पुण्यश्लोक जीवनदर्शन के बारे में शोधार्थी विद्वान् लेखक के द्वारा लिखा गया यह आलेख इन्हीं आचार्यश्री शांतिसागर जी मुनिराज की परम्परा के श्रमणों एवं श्रावकवर्ग – दोनों के लिए संभवत: कतिपय आत्ममंथन के विचारबिन्दु दे सकेगा – इसी आशा के साथ यहाँ प्रस्तुत है । —सम्पादक मानव के देह में जो महत्त्व आत्मा का है, वही महत्त्व आत्मसाधना में लीन आत्मनिष्ठ महात्माओं का स्थान समाज में है । व्यक्तिगत जीवन में जैसे आत्मा व्यक्ति का पथ-प्रदर्शन करता है, वैसे ही समाज का पथ-प्रदर्शन आत्मनिष्ठ महापुरुष करते हैं । धर्म और समाज की मर्यादा ऐसे महात्माओं पर ही निर्भर है । उनका त्याग तपस्यामय परमप्रबल जीवन, जब सत्य और अहिंसा को अपने में तन्मय कर लेता है, तब वह तेजोमय प्रकाश का ऐसा पुंज बन जाता है कि उससे चारों ओर स्वत: ही प्रकाश फैल जाता है। मोह-माया-ममता से वे सर्वथा मुक्त हो जाते हैं । अज्ञान - पक्षपात का अन्धकार उनके आसपास कहीं नहीं रहता। सभी धर्मों एवं समाजों में ऐसी व्यवस्था पाई जाती है कि उनमें एक न एक वर्ग ऐसा होता ही है, जिसका काम मुख्यत: समाज में धर्म की व्यवस्था को कायम करना होता है । जैन मुनि और आचार्य इसी लोकोत्तर कोटि के महापुरुष हैं। समाज की उन पर अपार श्रद्धा का कारण भी यही है कि उनके लोकोत्तर जीवन में अंशमात्र भी राग-द्वेष - हिंसा - ईर्ष्या और विरोधभाव नहीं रहता। जैसा कि आचार्य अमृतचंद्रदेव ने कहा है- “मुनीनां अलौकिकी वृत्ति: ” मुनियों की अलौकिकी प्रवृत्ति होती है। साधु का जीवन स्व और पर उपकार के लिए होता है । साधु का स्वात्मध्यान में निष्ठ रहना स्वोपकार हैं। जब वह आत्मध्यान से बाहर आता है, तो पर कल्याण की प्राकृतविद्या← जुलाई-सितम्बर 2000 009
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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