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________________ पिये हुए थे; जिसप्रकार गौओं के स्तनों में दूध भरा रहता है, वैसे धान में भी दूध भरा हुआ था और जिसप्रकार गौयें लोकोपकार करती हैं, वैसे धान भी लोकोपकार करते हैं । आज कन्धे ढले हुए हैं यहाँ गौ के लिए जिस विशेषण पदावली का प्रयोग आचार्य ने किया है, वह ध्यान देने योग्य है। उन्होंने उन गौओं को क्षीर - मेघ, प्राज्यक्षीर और लोकोपकारी बताया है। उन गौओं के साथ देश का स्वास्थ्य भी पीनपुष्ट और क्षीरस्नात था, इसमें संदेह नहीं । बालक उस समय खड़े दूध पीते थे और बैलों के समान ऊँचे कन्धे वाले होते थे । गौवंश - पालन का यह प्रत्यक्ष लाभ था। जिसके अभाव में आज राष्ट्र के युवाओं के कन्धे ढले हुए हैं और रीढ़ की अस्थि बिना डोरी खींचे धनुष- समान ही झुकी हुई है । यह चिन्तनीय स्थिति है, जो राष्ट्र के बल-वैभव के लिए अभिशाप है । 1 आदिनाथ का चिह्न – 'वृषभ' — ‘वाल्मीकि रामायण' में लिखा है 'भगवान् श्रीरामचन्द्र ने विद्वानों को विधिपूर्वक कोटि अयुत गौयें देकर गुणशील राजवंशों की स्थापना की' - “गवां कोट्ययुतं दत्त्वा विद्वद्भ्यो विधिपूर्वकम् । राजवंशान् शतगुणान् स्थापयिष्यति राघवः । । ” - (वाल्मीकि रामायण) 1 भारत में राजप्रासादों, कृषि और ऋषि - कुटीरों की समान शोभा थी । तुष्टि - पुष्टि के लिए गौ को 'कामधेनु' संज्ञा दी गयी है । उपनिषदों में स्थान-स्थान पर वैदिक ऋषियों को राजाओं ने गोदान किया है। एक बार राजा जनक ने एक सौ गौओं को अलंकृत कर ऋषियों से कहा कि " आप में जो ब्रह्मवेत्ता है, वह इन गौओं को ले जाए ।" महर्षि याज्ञवल्क्य गौओं को हाँककर ले चले । अन्य विद्वान् ऋषियों ने प्रश्न किया कि - " है याज्ञवल्क्य ! क्या आप ब्रह्मज्ञानी हैं ? " याज्ञवल्क्य ज्ञानी थे, परन्तु उन्होंने निरभिमानी होकर कहा - " -" ब्रह्मवेत्ता को तो हम सिर झुकाते हैं । हमें तो दूध पीने के लिए गौओं की आवश्यकता है ।" तात्पर्य यही है कि प्राचीन राजाओं को गोदान प्रिय था । वे मनोविनोद के लिए भी ऐसे प्रकरण ढूँढ़ निकालते थे, जिनमें ब्रह्मचर्चा भी हो जाती थी और गोदान के वांछित अवसर भी सुलभ हो जाते थे। प्रजापति ऋषभनाथ का चिह्न वृषभ है। कर्मभूमि में कृषि के आदि उपदेष्टा के लिए वृषभ - चिह्न धारण करना उपयुक्त ही है; इसीलिए आचार्य समन्तभद्र ने भक्ति - उच्छ्वासित होकर उन्हें कृषि-उपदेष्टा कहते हुए लिखा— 'प्रजापतिर्य: प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजा:' । परन्तु आज का युग विचित्र है। जिनकी जीविका का आलम्बन विद्या है, वे सरस्वती - भक्त नहीं, स्वाध्याय-रसिक नहीं हैं; और जो गाय-बछड़े का चिह्न धारण कर स्वयं को वृषभ - भक्त, कृषि-प्रिय, कृषक-मित्र इत्यादि व्यक्त करते एवं उसी से मत प्राप्त कर समाज एवं राष्ट्र प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च '2000 ☐☐ 48
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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