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________________ घास-फूस तथा अन्य पशु- भक्षणीय अन्नादि भी प्रदान करते थे। परिणामस्वरूप देश-भर में घृत-दुग्ध की नदियाँ प्रवाहित थीं । गृहस्थ अतिथियों के आगमन की प्रतीक्षा किया करते थे तथा कहते थे “अतिथींश्च लभेमहि श्रद्धा च मा नो व्यगमत् ” अर्थात् हम अतिथियों को प्राप्त करते रहे, हमारी श्रद्धा कभी कम न हो और सौभाग्यपर्व को उजागर करने वाले अतिथि जब वे उन्हें मिल जाते थे, तब वे उन्हें प्रचुर दुग्ध - घृत पिलाकर उनका सत्कार करते हुए राष्ट्र में प्रचलित उस सूक्त को चरितार्थ करते थे, जिसमें कहा गया है— ‘घृतैर्बोधयतातिथिम्' अतिथि का घृत से सत्कार करो। इन सूक्तों का प्रचलन ही इस तथ्य का समर्थक है कि गोवंश की पालना घर-घर में होती थीं। श्रीकृष्ण वासुदेव ने तो गोसंवर्धन के लिए विशेष प्रयत्न किया और पर्वत जैसे इस विशाल, गुरुतर कार्य का भार उठाकर गोवर्धन किया । गायों के परिवर्धन में आर्यों के वैभव का विस्तार देखकर प्रत्येक भारतीय के लिए एक सूक्ति याद आती है— 'गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मे सन्तु पृष्ठत: ।' 'गौयें मेरे आगे रहें, गौयें मेरे पृष्ठदेश में हों' - इसप्रकार के उद्गार व्यक्त करने से ही आज भारत उन्हें 'गोपाल' कहकर पुकारता है । अनदुहे-भरे दुग्ध-पान संस्कृत साहित्य में गौ को 'अघ्न्या' (अदण्डनीय) कहा है। उस प्राचीन समय में गृहस्थ 'गवाट' रखते थे, जिनमें क्षीर-धार से क्षोणी (पृथ्वी) का अभिषेक करनेवाली कुम्भस्तनी गौएँ रहा करतीं थीं और वत्सपीतावशेष दुग्ध से बिना दुहे पात्र भर जाते थे। भगवज्जिनसेनाचार्य ने चक्रवर्ती भरत के दिग्विजय - प्रकरण में ऐसी बहुक्षीरा धेनुओं का वर्णन किया है, जिन्होंने गोचर भूमि को स्वयं - प्रस्तुत दुग्धधार से सींच दिया था और जिनके समूह वनों में निर्बन्ध हरिणों से विचर रहे थे, चर रहे थे । वे पद्य निम्नलिखित हैं— 'गवां गणानयापश्यद् गोष्पदारण्यचारिणः । क्षीर मेघानिवाजसंक्षरत्क्षीरप्लुतन्तिकान् । । सौरभेयान् सशृंगाग्रसमुत्खातस्थलाम्बुजान् । मृणालानि यशांसीव किरतोऽपश्यदुन्मदान् ।। आपपीतपयसः प्राज्यक्षीरा लोकोपकारिणीः । पयस्विनीरिवापश्यत् प्रसूता: शालिसम्पदः । ।' - ( जैनाचार्य जिनसेन, महापुराण, 26 पर्व, 109, 10, 115 ) अर्थ:- चक्रवर्ती भरत ने वनों की गोचरभूमि में चरते • हुए गौओं के समूह देखे। वे समूह दूध के मेघों के समान निरन्तर झरते हुए समीपवर्तिनी भूमि को भिगो रहे थे। सींगों hi अग्रभाग से स्थल - कमलों को उखाड़कर इधर-उधर फेंकने में लगे हुए मानो भरत के यश को फैला रहे उन्मत्त बैलों को भरत ने देखा । उन्होंने यत्र-तत्र फैली हुई धानरूप सम्पदा को गायों के समान देखा, अर्थात् जैसे गौयें जल पीती हैं, उसीप्रकार धान्यक्षेत्र भी जल प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च 2000 00 47
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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