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________________ अर्थ:—जो साधु आगम-विरुद्ध बोलता है, उसे मूल-प्रायश्चित्त देना चाहिये। तथा जो सर्वज्ञप्रणीत वचनों को छोड़कर अपनी इच्छानुसार लोगों के बीच बोलता है, वह स्वेच्छाचारी' है; अत: उस स्वेच्छाचारी को मूलच्छेद (दीक्षाच्छेद) का प्रायश्चित्त देना चाहिये। इसीलिए कहा गया है कि तप:साधना के साथ-साथ शास्त्राभ्यास को साधुजनों में कदापि शिथिलता भी नहीं करना चाहिये। अन्यथा जैसे सीमा पर खड़े फौजी के हाथ से शस्त्र निकलते ही उसका मरण हो जाता है, वह आत्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा में समर्थ नहीं हो पाता है; उसीप्रकार यदि श्रामण्य को अंगीकार करनेवाले साधु के हाथ से शास्त्र छूट जाते हैं अर्थात् वह शास्त्राभ्यास में प्रमादी हो जाता है, तो विषयों के आकर्षणजाल में उलझकर उसका पतन अवश्यंभावी है; वह न तो श्रमणचर्या की रक्षा कर सकता है और न ही समाज को सही दिशा देने में समर्थ हो सकता है। शास्त्राभ्यास ही उनके मन को शांत और उद्वेगरहित रखकर श्रामण्यपथ पर अग्रसर रखता है। -इस तथ्य को ध्यान में रखकर वर्तमान श्रमणों को भी आगमग्रंथों का गहन अभ्यास करना चाहिये। तथा यदि उपदेश आदि का प्रसंग उपस्थित हो, तो मूलग्रंथों को सामने रखकर उसी के अनुसार व्याख्यान देने चाहिये। इसके अतिरिक्त मेलों, जलूसों, आन्दोलनों, पूजा-पाठ आदि कार्यों व धनसंग्रह जैसे श्रामण्यविरुद्ध कार्यों से बचकर रहना चाहिये। तथा समाज को भी चाहिये कि वह श्रमणों की शास्त्रोक्त साधनापद्धति को जानकर उनकी ज्ञानसाधना में साधक बने और उनसे सांसारिक बातों की चर्चा भी नहीं करे। परिग्रह-संग्रह की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने का तो पूर्ण बहिष्कार ही होना चाहिये। अन्यथा श्रमणधर्म और समाज—दोनों का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा। प्राचीन राजनीति की सफल आधारशिला अहिच्छेत्र का राजा पद्यनाभ था, उसके ऊपर उज्जैन नरेश ने आक्रमश कर दिया। पद्यनाभ ने सुरक्षा के लिए अपने पुत्र माधव और दद्दगि को राजचिह्नों सहित अन्य प्रदेश में भेज दिया। दोनों राजकुमार कर्नाटक देश के जिनमन्दिर में जिनेन्द्रदर्शन को गये। वहीं पर आचार्य सिंहनंदि के दर्शन कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। आचार्यश्री ने उन्हें विद्वान् बनाकर वहाँ का राजा बना दिया तथा मोरपिच्छी को राजध्वज का चिह्न बनाया। आचार्यश्री ने उन्हें शिक्षायें दी- जब तक 1. तुम लोग वचन भंग नहीं करोगे, 2. जिनशासन से विमुख नहीं बनोगे, 3. परस्त्री के ऊपर कुदृष्टि नहीं डालोगे, 4. मद्य-मांस का सेवन नहीं करोगे, 5. नीच व्यक्तियों की कुसंगति नहीं करोगे, 6. याचकजनों को दान देते रहोगे, 7. रणभूमि में पीठ नहीं दिखाओगे, तब तक तुम्हारा शासन और कुल नष्ट हो जायेगा। इस शिक्षा पर दूसरी शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक इस गंगवंश के जैन राजाओं का 1500 वर्षों तक दक्षिण में राज्यशासन जैन गुरुओं के तत्त्वावधान में चलता रहा। ** प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 40 41
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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