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________________ एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न का समाधान -नाथूलाल जैन शास्त्री आधुनिकतावादी अपरिक्व विद्वान् शास्त्र की मर्यादा को भलीभाँति समझे बिना कैसे-कैसे अनर्थ उत्पन्न कर लेते हैं। इन अनर्थों का एकमात्र कारण शब्द को 'लकीर के फकीर' की तरह पकड़ना है। वस्तुत: आचारशास्त्रीय शब्दों का प्रामाणिक अर्थ व्यापक अध्ययन, परम्परा एवं व्यवहार का सूक्ष्मज्ञान हुए बिना ठीक-ठीक नहीं निकाला जा सकता है। वयोवृद्ध मनीषी साधक पं० नाथूलाल जी शास्त्री ने एक ऐसे ही प्रश्न का अत्यन्त प्रामाणिक समाधान इस आलेख में किया है। -सम्पादक __ अनेक विद्वान् और श्री जुगल किशोर जी मुख्तार कंदमूलादि को सचित्त को अचित्त करके खाने, खिलाने में दोष नहीं मानते थे। मुख्तार साहब का 'गलती और गलतफहमी' शीर्षक निबन्ध, उनकी 'युगवीर निबंधावली' दूसरा भाग में प्रकाशित है, जिसके प्रभाव से ऐलक पन्नालाल जी और ब्र० ज्ञानानंद जी ने आहार में अचित्त आलू खाना प्रारंभ कर दिये थे। 'जैनगजट' के पूर्व अंक में इसके समाचार भी प्रकाशित हुये थे। अमेरिका के कुछ स्वाध्यायप्रेमी सज्जनों ने श्री डॉ० नंदलाल जी, रीवा द्वारा मेरे पास अनेक प्रश्नों में से यह सचित्त-संबंधी प्रश्न भी भेजा गया है। "मूल-फल-शाक-शाखा-करीर-कंद-प्रसन-बीजानि। नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्ति: ।।" -(आचार्य समंतभद्र, रत्नकरंड श्रावकाचार 4) अर्थ:—पंचम प्रतिमाधारी श्रावक कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, कंद (आलू शकरकंद आदि), फल और बीज नहीं खाता अर्थात् इन्हें अग्नि में पकने पर खा सकता है और ऐसा दयामूर्ति मुनि आदि को आहार में दे भी सकता है। “फल-कंद-मूल-वीयं अणग्गिपक्कं तु आमयं किंचि। पच्छा अणंसणीयं णाविय पडिच्छंति ते धीरा।।" -(मूलाचार', आचार्य बट्टकेर, गा0 827) अर्थ:-अग्नि में नहीं पके हुए फल, कंद, मूल, बीज तथा और भी कच्चे पदार्थ जो खाने योग्य नहीं है, ऐसा जानकर धीर मुनि उन्हें स्वीकार नहीं करते। 40 42 प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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