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अर्थ:—अत्यधिक वृद्ध हो जाने पर भी शास्त्रों का अभ्यास (श्रुतसंग्रह) निरन्तर करते रहना चाहिये। इसका एक विशेष लाभ यह होता है कि जहाँ ऐसे बहुश्रुत (शास्त्रज्ञानी) श्रमण/मनीषी जाते हैं, वहाँ धनार्थी और धनवान् लोग नहीं जाते हैं। ___ इसका सुपरिणाम यह होता है कि उनकी ज्ञानसाधना निर्विघ्नरूप से चलती रहती है तथा सांसारिक प्रपंचों में उनका मन चलायमान नहीं हो पाता है।
जैनाचार्य शर्ववर्म अपने व्याकरण-ग्रन्थ में इस बारे में निम्नानुसार निर्देश करते हैं- “यावति विन्द जीवो।" – (कालापक-कातंत्र व्याकरण, 4/6/9, पृ0 799)
भाष्य - “यावज्जीवमधीयते। यावन्तं जीवति तावन्तं अधीते इत्यर्थः ।" अर्थात् जब तक जीवित रहता है, तब तक पढ़ता है।
संभवत: यह निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैन श्रमण को दृष्टि में रखकर ही उन्होंने लिखा है।
शास्त्राभ्यास में ही निरन्तर गहन रुचि एवं तल्लीनता के कारण वे ज्ञानी-ध्यानी श्रमण अन्य प्रशस्त सांसारिक क्रियाओं से भी प्राय: विरत रहते हैं। क्रियाकलाप' ग्रंथ में इस तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा गया है
"ये व्याख्यान्ति न शास्त्रं न ददाति दीक्षादिकञ्च शिष्याणाम् । कर्मोन्मूलनशक्ता ध्यानरतास्तेऽत्र साधवो ज्ञेया: ।।"
-(सामायिक दण्डक, 4, पृ० 143) अर्थ:—जो न तो लोगों के बीच जाकर (पंडितों की तरह) शास्त्रों का व्याख्यान करते हैं, न शिष्यों को दीक्षा देने आदि के कामों में लगे रहते हैं; मात्र कर्मों को नष्ट करने में अपनी शक्ति का उपयोग करते हुये जो आत्मध्यान में लीन हैं, उन्हें ही साधु जानना' चाहिये।
ऐसा क्यों? –तो विचार करने पर समाधान मिलता है कि शास्त्राभ्यास एवं आत्मध्यान अबाधित बना रहे - इसी भावना से वे ऐसा करते हैं। क्योंकि शास्त्र-सिन्धु अगाध, अपार है; इस छोटे-से मनुष्य जीवन में क्षुद्र-क्षयोपशमरूपी नौका से इसका पार पा सकना असंभव है। अत: जितना बन सके ज्ञान-ध्यान में लीन रहें। अनावश्यक उपदेश देने, दीक्षा देकर संघ बढ़ाने के चक्कर में कौन पड़े?
फिर भी कदाचित् उपदेश देने में रागवश प्रवृत्त हो भी जायें, तो फिर व्यापक शास्त्रज्ञान, स्मरणशक्ति की कमी किंचित् मात्र भी प्रमादभाव होने से शास्त्र की मर्यादा के विरुद्ध वचन संभव हैं। तथा ऐसे लोगों (आगमविरुद्ध बोलने वालों) के लिए शास्त्र में 'दीक्षाच्छेद' के प्रायश्चित्त का विधान किया गया है
"उत्सूत्रं वर्णयेत् कामं जिनेन्द्रोक्तमिति ब्रुवन् । यथाच्छंदो भवत्येष तस्य मूलं वितीर्यते।।"
--(प्रायश्चित्त-समुच्चय, 236, पृ० 136)
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प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000