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________________ हैं। 'सिद्ध' मंगलरूप भी हैं, अत: यह सिद्धप्रभु का स्मरण भी कराता है। यही दृष्टिकोण रखकर सूत्रों पर विशेष अध्ययन करने की आवश्यकता भी है। ____ कातन्त्र-व्याकरण का व्यापक परिप्रेक्ष्य:- जहाँ यह व्याकरण जैनदृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, वहीं इसकी यह भी व्यापकता है कि यह पूरे भारत एवं अन्य प्रदेशों तथा विदेशों में भी पढ़ाया जाता है। भारतीय पठन-पाठन की परम्परा के तीन प्रचलित रूप व्याकरणविदों के इसप्रकार दिये हैं— (1) बंगीय परम्परा, (2) कश्मीरी परम्परा और (3) मध्यदेशी परम्परा। आज भी जैन-परम्परा का महत्त्व है। इसे अध्ययन-अध्यापन के रूप में जैन-श्रमणों को पढ़ाया जाता है। पर जिस व्यापकरूप में इसकी परम्परा है, उस परम्परा को जीवित रखने के लिए जैन-जगत् को आगे आना होगा, जो भी संस्कृत-शिक्षण के क्षेत्र में या संस्कृत-शिक्षण से संबंधित मनीषी लोग हैं, उन्हें उसके अतीत को अक्षुण्ण बनाये रखना होगा। जहाँ तक मैं जानता हूँ, आज भारत देश के सम्पूर्ण साधु-समाज में यदि इसका प्रवेश प्रारम्भ हो जाए, तो उन साधु-संघ के ब्रह्मचारियों एवं ब्रह्मचारिणी बहिनों में इसके पढ़ने के प्रति रुचि जागृत होगी, क्योंकि आज ये ही कातन्त्र को सुरक्षित रख सकते हैं। समाज में चलने वाले विद्यालय, महाविद्यालय आदि तो पराधीन हो गए हैं, उनकी स्थिति विकट है। अत: समाज में यह जागृत किया जाये या इसे पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाये कि जो भी इसे कंठस्थ पारायण करेगा या जो भी करायेगा, उसको प्रत्येक सूत्र के यदि 100/- रू० भी देकर सम्मान किया जाये, तो कम होगा। आपके लाखों रुपयों से अरबों की सम्पत्ति अमूल्यनिधि समाप्ति से बच जाएगी। यह यह एक ऐसा दिव्य जिनालय है, जिसमें (1373) एक हजार तीन सौ तिहत्तर प्रतिमायें हैं, जो हीरे से बहुमूल्य धातुओं की हैं। धातु या पत्थर की प्रतिमायें तो कोई भी ले जा सकता है, चुरा सकता है या छीन सकता है। छीनने या चुराने की स्थिति पर ऐसे लोग भी मिल जायेंगे, जो इतनी ही संख्या में बनवाकर स्थापित करा सकते हैं; पर उनकी भव्यता नहीं रह सकती है। यही कातन्त्र व्याकरण' रूपी मन्दिर में नहीं हो सकता है। इसे जितना पढ़ने वालों या पढ़ाने वालों का योग मिलेगा, वे कितने ही मूर्तरूप में सूत्ररूपी मूर्तियाँ स्थापित कर सकेंगे। मैंने सर्वप्रथम इसे देखा परायण किया और इसके प्रचार के लिए संकल्प किया। आज नाना संघ हैं, बाल ब्रह्मचारी हैं, युवा संत भी हैं। इनके जीवन का सार यह परम तन्त्र कातन्त्र में लगे, तो निश्चित ही समाज की अनुपम निधि बच सकेगी। इसे बचाना है, प्रयास कीजिये, सफलता मिलेगी। कातन्त्र-व्याकरण के नाम इस व्याकरण के विविध नाम हैं, जिनमें कालाप, कौमारादि प्रसिद्ध हैं। कातन्त्र व्याकरण और उसकी टीकायें कातन्त्र समग्र संस्कृत-प्रेमियों में प्रचलित एक सरल व्याकरण मानी गई है। इसका अध्ययन-अध्यापन वर्षों से ही नहीं, अपितु सहस्राब्दियों से चला आ रहा है। यह भारतवर्ष 00 32 प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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