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________________ आदिबुड्ढीस कय-अकारत्तादो।” ए और ओ सन्ध्यक्षर स्वर हैं। – (षट्खंडागम, धवला टीका 3/8/90)। 'धवला' पुस्तक के खंड चार, पुस्तक नौ में 'लिंग-संख्या-कालकारक-पुरुषोपग्रह व्यभिचार निवृत्तिपर:' का कथन इसी बात का पोषक प्रमाण है। श्वेताम्बर-आगम में "भासा भासेज्ज" के आधार पर “एगवयणं बहुवयणं इत्थीवयणं णउंसगवयणं पच्चक्खवयणं परोक्खवयणं" – (आचार चूला० 4/1/3) में यही विश्लेषित किया है कि भाषा का जो भी कथन हो वह लिंगानुसार होना चाहिये 'सूत्रकृतांग' में आठ कारक वचन, काल आदि का संकेत व्याकरण की प्राचीन परम्परा को सिद्ध करते हैं। जैन परम्परा में व्याकरण रचना __जैनाचार्यों ने सूत्रबद्धता पर विशेष बल दिया, अत: यह तो निश्चित है कि जैन-क्षेत्र में भाषा-नियमन पर विशेष बल दिया जाता था। आगम सूत्र इसके प्रमाण हैं। भाषा का साहित्य-क्षेत्र में प्रवेश होने पर समय-समय पर विज्ञजनों ने व्याकरणसूत्रों की रचना की। जैसे सद्दपाहुड, ऐन्द्र व्याकरण, चण्डकृत प्राकृत लक्षणं, जैनेन्द्र व्याकरण, शाकटायन-व्याकरण, सिद्धहेमशब्दानुशासन आदि संस्कृत एवं प्राकृत में कई व्याकरण लिखे गये। 'कातन व्याकरण' की उपादेयता विभिन्न व्याकरण-ग्रन्थों की परम्परा में कातन्त्र-व्याकरण का नाम सर्वोपरि सर्वमान्य एवं देश-विदेश आदि में प्रचलित व्याकरण रहा है। इसे पाणिनीय से पूर्व भी माना गया है। यह जैन और जैनेतर दोनों ही परम्पराओं में मान्य व्याकरण रहा है। यह अध्ययन किया जाता था और अध्यापन के लिए भी निर्धारित किया जाता है। समय-समय पर शासकों ने भी इस पर विशेष बल दिया। कहा जाता है कि यह आन्ध्रप्रदेश के राजा सातवाहन को अल्पावधि में सरलतम ज्ञान कराने के लिए कातन्त्र' को ही आधार बनाया गया था; क्योंकि यह अत्यन्त सरल, आर्ष व्याकरण है। कातन्त्र व्याकरण के सूत्रकार इसके सूत्रकर्ता आचार्य शर्ववर्म हैं। इसके कर्ता ने अपनी सूक्ष्मदृष्टि से व्याकरण के सिद्धान्तों का नियमन इस तरह किया कि पढ़नेवाला सहज ही कंठस्थ करने में समर्थ हो जाता है। कातन्त्र का प्रथम सूत्र 'सिद्धो वर्ण समाम्नाय:' है। इसके कई अर्थ हो सकते हैं। भाषा की दृष्टि से वर्गों की सम्यक् रूपरेखा भी अर्थ है। 'सम्यगाम्नायन्ते अभ्यस्यन्ते इति समाम्नाया:' यह व्युत्पत्ति इसी बात का बोध कराती है कि जो वर्णों अर्थात् स्वर-व्यंजनों का सम्यक् अभ्यास कराये, वही इसकी प्रसिद्धि है, व्यापकता है और सार्थकता भी है। 'सिद्ध' का द्वितीय अर्थ प्रसिद्ध, निष्पन्न भी है 'निष्पन्नार्थो का प्रसिद्धार्थो वा।' और तृतीय अर्थ जैन सिद्ध' शब्द से यह अर्थ बोध कराता है कि जो सिद्ध कर्ममुक्त हैं, वे सिद्ध प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 0031
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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