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________________ के अतिरिक्त बर्मा, थाईलैंड, जापान, श्रीलंका आदि उन प्रदेशों में भी प्रचलित रही, जहाँ बौद्धधर्म ने अपना विकास किया। यह व्याकरण प्रत्येक क्षेत्र में अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना गया। इसलिये इस पर विविध टीकायें लिखी गई हैं। ___कातन्त्रदीपिका :- मुनीश्वरसूरि के शिष्य हर्ष मुनि द्वारा की गई टीका कातन्त्रदीपिका है। कातन्त्र-रूपमाला :- बालकों के बोध हेतु मुनीश्वर भावसेन ने इस पर स्पष्टीकरण टीका प्रस्तुत की, जो सुकुमार एवं सरल रूप सिद्धि आदि से युक्त है। कातन्त्र विस्तार :- यह कातन्त्र पर लिखी गई वृहद टीका है, जो वि०सं० 1448 के आसपास मुनि वर्धमान के द्वारा प्रस्तुत की गई। कातन्त्रपंजिकोद्योत :- मुनि वर्धमान के शिष्य त्रिविक्रम ने इस पर टीका लिखी। कातन्त्रोत्तर :- विजयानन्दकृत यह टीका समाधान से परिपूर्ण अप्रकाशित अहमदाबाद मे हैं। कातन्त्रभूषणम् :- आचार्य धर्मघोष ने इस पर भावपूर्ण एवं सरल टीका लिखी है। कातन्त्रविश्वम टीका :- आचार्य जिनसिंहसूरि के शिष्य आचार्य जिनप्रभ सूरि ने कातन्त्र पर टीका प्रस्तुत की है। इत्यादि कई टीकायें कातन्त्र पर लिखी गई हैं। इसके टीकाकार जैनाचार्य हैं। आज इस युग के मुनीश्वरों को चाहिये कि पुन: इसकी वास्तविकता को समझकर साधु-साध्वियों को इस ओर प्रेरित करें। जिस धरोहर को दो हजार वर्ष से पूर्व से भी सुरक्षित करते आ रहे हैं, आज उसका न्यास समाप्त करके साहित्य के क्षेत्र में अपूर्ण क्षति कर जायेंगे। आने वाला समय एवं वैज्ञानिक युग के कम्प्यूटरी युग में सरलीकरण की प्रवृत्ति को कौन नहीं अपनाना चाहेगा? आचार्यप्रवर विद्यानन्द जी जैसे संत इस भारतवर्ष में हैं। उनका समाज में स्थान है, नाम है और प्रभाव भी है। अत: जब वे ऐसा करने के लिए उदारमनाओं को बोध देकर इनके जानकार लोगों का सम्मान करा रहे हैं, तो क्या हमारा यह कर्त्तव्य नहीं हो जाता है कि हम अपनी अनुपम निधि को पढ़कर व्याकरण की गौरवमयी परम्परा को जीवित रखने में योगदान दें? व्याकरण और अपरिग्रहवाद कातन्त्र व्याकरण में 'विरामे वा' सूत्र के द्वारा पदान्त में भी मकार को विकल्प से अनुस्वार बनाने का जो नियम दिया गया है, वह निर्ग्रन्थ श्रमणों की अपरिग्रहवादी दृष्टि का पोषक है, क्योंकि अनुस्वार में स्याही, समय, जगह एवं श्रम सभी की बचत होती है, जबकि मकार के लिखने में ये सब अधिक लगते हैं। अत: अनुस्वार अपरिग्रहवाद का प्रतीक प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 40 33
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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