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मुख्य विभेदक- रेखा है। ज्ञान द्वारा ही धर्म मार्ग - प्रभावना की जा सकती है 'ज्ञानतपोदानजिनपूजाविधिना धर्मप्रकाशनं मार्ग प्रभावना - ( सर्वार्थसिद्धि, 6/ 24 ) धर्म के प्रकाशन में, अधर्म के निर्मूलन में, हितानुबन्धि-उपदेश में, ज्ञान मुख्य- सहायक है। इसीलिये ‘सर्वार्थसिद्धि' में साधु के लिए सम्यग् ज्ञानाराधन में नित्य युक्तता को ‘अभीक्ष्णज्ञानोपयोग’ से अभिहित किया गया है। 'अभीक्ष्णं तु मुहुर्मुहु:' जीवादिपदार्थस्वतत्त्वविषय में पुन: पुन: चिन्तन-मनन- निदिध्यासन करना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है । 'जीवादि पदार्थस्वतत्त्वविषये सम्यग ज्ञाने नित्यं युक्तता अभीक्ष्णज्ञानोपयोग : ' – (सर्वार्थसिद्धि, 6/24) जिसप्रकार गौ आदि पशु भुक्त शस्यादि का विश्राम के समय रोमन्थन ( चर्वित - चर्वण) करते हैं, वैसे ही उस क्रिया द्वारा अशित: भुक्त पदार्थों का रसमय परिपाक प्राप्त करते हैं, वैसे ही अधीत विद्या का क्रियासमभिहार (पौनःपुन्य) से मंथन करना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है ।
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अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग से श्रुतदृढ़ता की प्राप्ति होती है । जिसप्रकार गाय को बाँधने का खूँटा एक ही चोट में गहरा नहीं धँसता, उसे बार-बार हिला-हिलाकर ठोंककर सुदृढ़ किया जाता है, उसीप्रकार ज्ञान को ध्रुव करने की प्रक्रिया 'अभीक्ष्णता' में है । विद्या के विषय में किसी ने बहुत मार्मिक सूक्ति लिखते हुए कहा है— विद्या (ज्ञान) सौ बार के अभ्यास से आती है और सहस्र बार किये गये अभ्यास से स्थिर होती है । यदि उसे सहस्र बार सहस्र से गुणित किया जा सके तो वह इस जन्म में तथा जन्मान्तर में भी साथ नहीं छोड़ती। सतत् अभ्यास का नाम ही अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है । 'पनिहारिन की लेज सौं सहज कटै पाषाण' बार-बार शिला पर सरकती हुई रज्जु पत्थर को भी काट देती है ।
अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग के मूल में अविच्छिन्न आत्मध्यान की भावना है; क्योंकि ज्ञानोपयोग के अभाव में मन को संभालना कठिन हो जाता है । 'श्रुतस्कन्धे धीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम्' – यह मन वानर है, चंचल है, अत: अपनी चंचलता को छोड़ेगा नहीं' – ऐसा विचारकर इसे शास्त्रवृक्ष के स्कन्धदेश पर अवरोहरण करने का अजस्र क्रम दे दिया जाए, तो यह उसी में लगा रहेगा ।
'अभ्यासेन तु कौन्तेय' कहते हुए गीता में मनोनिग्रह का उपाय अभ्यास को बताया गया है। अभीक्ष्णता अभ्यास का ही नामान्तर है । 'अज्झयणमेव झाणं' सूत्र में 'एव' पद अभीक्ष्णता का ही बोधक है । 'धर्मश्रुत धनानां प्रतिदिनं लवो पि संगृह्यमाणो भवति समुद्रादप्यधिक:' (सोमदेव, यशस्तिलकचम्पूः ) – धर्म, शास्त्र तथा धन का लवसंग्रह भी कालान्तर में समुद्र समान बन जाता है।' अतः 'क्षणश: कणशश्चैव विद्यर्थं चिन्तयेत्' क्षण-क्षण से विद्योपार्जन होता है, ऐसा विचारते रहना चाहिए । ज्ञान को आत्म-सम्पत्ति बना लेने के पश्चात् सम्पूर्ण पदार्थ स्वयं उसमें समाहित हो जाते हैं। 'सयं अट्ठा णाणाट्ठिदा सव्वें - ( प्रवचनसार, 35 ) ।
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प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च 2000
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