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वाले) दिन की प्रतीत होती है। यह ज्ञान-रत्न जिसके पास हो, वह प्रमाद की शैया पर क्षणभर भी सो जाए, तो उसके लुटने का भय रहता है। फकीर तो कहीं भी सोये, उसकी फटी गुदड़ी को चोर नहीं लगते; परन्तु रत्न रखनेवाले की मूर्छा उसी के लिए हानिप्रद हो सकती है। तीन त्याज्य, जीन ग्राह्य __प्रसमिद्ध (दीप्त) अग्नि की ज्वाला हवन-कुण्ड के ऊपर (बाहर) निकल कर आस-पास उपासीनों को अपनी सत्ता का भान कराने लगती है। इसीप्रकार अन्त:करण में विराजमान ज्ञान-ज्योति आकृति पर प्रतिफलित होने लगती है। ज्ञानाकारवृत्ति की उस सिद्ध (निष्पन्न) अवस्था में आनन्द की अविरल पयस्विनी आत्म-समुद्र में अवतीर्ण होती है और नेत्र उसके प्रकाश से छिन्न-संशय आलोक से प्रदीप्त हो उठते हैं। उस ज्ञान से साम्यावस्था का प्रादुर्भाव होता है, जिसे अहिंसा-शक्ति के रूप में विश्व अनुभव करता है। 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः' (पातंजल योगदर्शन) अहिंसा की प्रतिष्ठा होने पर उस अहिंसक के समीप प्राणियों में वैरत्याग की भावना का उदय हो जाता है। तब मृगी सिंहशिशु का दुलार करने लगती है और गौ-वत्स के समान बाघपोत से वात्सल्य जताने लगती है। यह सहज शत्रुओं का पारस्परिक मैत्रीभाव है और जो स्वभावत: मित्र हैं उनमें तरंगित होने वाले स्नेह व्यापार का तो वर्णन कहाँ किया जा सकता है? यह अहिंसक परिणाम दुरारूढ़ ज्ञान तप की सिद्धि से ही संभाव्य है। ज्ञानी के नेत्र विषय-कषाय-परिछिन्न नहीं होते। उनमें विश्व मैत्री के मणिदीप जलते हैं। सकलार्थसिद्धियों की प्राप्ति ज्ञान से ही होती है। ज्ञान केवल लौकिक साध्यों की उपलब्धि में ही सहायक नहीं, उसकी पराकाष्ठा तो सर्वज्ञत्व में है। ‘णत्थि परोक्खं किंचि वि' सर्वज्ञ से परोक्ष कोई पदार्थ नहीं है। ज्ञान का सर्वातिशायी परिणाम सर्वज्ञता में समाहित है और सर्वज्ञता का बीज कर्मक्षय में है। कर्मक्षयार्थं तुषमाष-रूप भेदविज्ञान की नितान्त आवश्यकता है। ___रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में तपस्वी के लिए तीन उपादेय और तीन त्याज्यों का निरूपण करते हुए लिखा है— जो विषयों की आशा से अतीत है, आरम्भ-त्यागी तथा परिग्रह-रहित है (इन तीनों को त्याग चुका है) एवं ज्ञान, ध्यान और तप में अनुरक्त है (इन तीनों पर दत्तावधान है) वह तपस्वी विशिष्ट है, तपस्वियों में श्रेष्ठ है। यहाँ ज्ञान को प्रमुख बताया गया है; क्योंकि ज्ञानपूर्वक किया गया उपवास ही व्रत है, ज्ञानपूर्वक परित्यक्त वस्त्रादि परिग्रह ही ग्रंथि-विमोक्ष है, ज्ञानपूर्वक परिसोढ़ परीषह ही तितिक्षा है। यदि इनमें ज्ञानानुपूर्वी न हो, तो वह उपवास अन्न अप्राप्तिजन्य बुभुक्षा है, वह निवस्त्रता प्रमाद अथवा अभाव है और वह परीषह कायरता मात्र है। अभीक्ष्णता : ज्ञान के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया
साधारणत: होने वाली मृत्यु तथा विधिपूर्वक ली गयी 'सल्लेखना में' ज्ञान-संयोग की
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प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000