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________________ आत्मा में सब कुछ __ ज्ञान-की पिपासा कभी शान्त नहीं होती। ज्ञान प्रतिक्षण नूतन है, वह कभी जीर्ण या पुराना नहीं पड़ता। स्वाध्याय, चिन्तन, तप, संयम ब्रह्मचर्य आदि उपायों से ज्ञान-निधि को प्राप्त किया जाता है। जो चिन्तन के समुद्र पी जाते हैं, स्वाध्याय की सुधा का निरंतर आस्वादन करते रहते हैं। संयम पर सुमेरु समान अचल स्थिर रहते हैं, वे ज्ञान-प्रसाद के अधिकारी होते हैं। ज्ञानवान् सर्वज्ञ हो जाता है। जिस विषय का स्पर्श करता है, वह उसे अपनी गाथा स्वयं गाकर सुना देता है। दर्पण में जैसे बिम्ब दिखता है, वैसे उनकी आत्मा में सब कुछ झलकने लगता है। ज्ञानाराधना में डूबे हुए लोग ज्ञान के पथिकों का मार्गदर्शन स्वयं भगवती सरस्वती करती है। न्यायशास्त्र के वैदिक विद्वान् कणाद महर्षि के विषय में एक किंवदन्ती प्रसिद्ध है कि वे हर समय ग्रंथावलोकन में दत्त-चित्त रहते थे। एक दिन मार्ग चलते-चलते पुस्तक पढ़ रहे थे कि किसी कूप में गिर पड़े; परन्तु वहाँ भी गिरते ही उठ बैठे और पुस्तक पढ़ने लगे। उनकी विद्यानिष्ठा से भगवती प्रसन्न हुई और प्रकट होकर कहा— क्या चाहते हो? महर्षि ने कहा—मार्ग में चलते समय पढ़ सकूँ, इसलिये पैरों में दो आँख लगा दो। तब से उनका नाम 'अक्षपाद' हो गया। __ऐसे ही एक अन्य विद्वान् हुए हैं, जिनका नाम 'वाचस्पति' था। बीस वर्ष तक. एक दार्शनिक व्याख्या-ग्रंथ लिखते रहे और घर में उपस्थित पत्नी का भी उन्हें पता नहीं चला। बीस वर्ष बाद ग्रन्थ समाप्ति पर उन्हें ज्ञान हुआ कि बीते वर्षों में निरन्तर कष्ट सहनकर ग्रन्थ-लेखन में निराकुलता देने वाली यह मेरी पत्नी है। उन्होंने पत्नी के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन करते हुए ग्रन्थ का नाम 'भामती' रखा, जो उनकी उस साध्वी पत्नी का नाम था और उसे अमर कर दिया। आज वैदिक दर्शनधारा के विद्वान् वाचस्पति को कम और 'भामती' को अधिक जानते हैं। ज्ञानाराधना में डूबे हुए लोग भोजन का स्वाद भूल जाते हैं; दिन-रात का भान भूल जाते हैं। पदार्थ-तत्व-जिज्ञासा में वे तल्लीन हो जाते हैं। उन्हीं के सामने वस्तुस्वरूप व्यक्त होता है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग की महिमा का सर्वथा वर्णन कर सकना कठिन है। देहरी-दीपक ___ अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का शास्त्रीय अर्थ है—जीवादि पदार्थ-रूप स्वतत्त्वविषयक सम्यग्ज्ञान में निरंतर लगे रहना। 'अभीक्ष्ण' शब्द का अर्थ है निरन्तर, बार-बार अभीक्ष्णं तु मुहुर्मुहुः (अमरकोष) और ज्ञानोपयोग के समास-भेद से दो अर्थ हैं- 1. ज्ञान का उपयोग तथा 2. ज्ञान और उपयोग अथवा ज्ञानपूर्वक आत्मा का उपयोग। ज्ञान-चेतना और दर्शन-चेतना। ज्ञान जीवन का लक्षण है। दर्शन के साथ ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। 40 18 प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च "2000
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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