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________________ जब तक शब्द प्रयुक्त होकर साहित्य में नहीं उतरते और जब तक कोई कृति सहृदयों के हृदय को आकर्षित नहीं कर लेती, तब तक शब्द का जन्म (निष्पन्नता) और कर्ता का कृतित्व कुमार ही है। श्रेष्ठ कृतियों के अध्ययन से हमें विचारों में नवीन शक्ति का उन्मेष होता हुआ प्रतीत होता है। नयी दिशा, नये विचार, नये शोध और वैदुष्य के अवसर निरन्तर स्वाध्याय करनेवालों को प्राप्त होते हैं। स्वाध्याय करते रहने से मनुष्य मेधावी होता है। ज्ञान की उपासना का माध्यम स्वाध्याय ही है। स्वाध्यायशील व्यक्ति उन विशिष्ट रचनाओं के अनुशीलन से अपने व्यक्तित्व में विशालता को समाविष्ट पाता है। वह रचनाओं के ही नहीं, अपितु उन-उन रचनाकारों के सम्पर्क में भी आता है, जिनकी पुस्तकें पढ़ता होता है; क्योंकि व्यक्ति अपने चिन्तन के परिणामों को ही पुस्तक में निबद्ध करता है। कौन कैसा है? यह उसके द्वारा निर्मित साहित्य को पढ़कर सहज ही जाना जा सकता है। स्वाध्यायशील व्यक्ति की विचारशक्ति और चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती है। मन, जो निरन्तर भटकने का आदी है, स्वाध्याय में लगा देने से स्थिर होने लगता है, और मन की स्थिरता आत्मोपलब्धि में परम सहायक होती है। एतावता स्वाध्याय के सुदूर परिणाम आत्मा को उत्कर्ष प्रदान करते हैं। पुस्तकालयों, व्यक्तिगत संग्रहालयों, ग्रन्थ-भण्डारों को दीमक लग रही है। नवयुवकों का जीवन स्वाध्याय-पराङ्मुख हो चला है। जीवन रात-दिन यन्त्र के समान जीविकोपार्जन की चक्की में पिस रहा है। स्वाध्याय की परिस्थितियाँ दुर्लभ हो गई हैं और बदलती परिस्थितियों के साथ मनुष्य स्वयं भी स्वाध्याय के प्रति विरक्त हो चला है। उसका कार्यालयों से बचा हुआ समय सिनेमा, रेडियो, ताश के पत्तों और अन्य सस्ते मनोरंजनों में चला जाता है। स्वाध्याय' शब्द की गरिमा के अनजाने लोग विचारकों की रत्न-सम्पदा समान ग्रन्थमाला से कोई लाभ नहीं उठा पाते। स्वाध्यायशील न रहने से मन में उदार सद्गुणों की पूँजी जमा नहीं होतीं, शरीर को भोजनरूपी खुराक (अन्नमय आहार) तो मिल जाता है; किन्तु मस्तिष्क भूखा रहता है। मानव केवल शरीर नहीं है, वह अपने मस्तिष्क की शक्ति से ही महान् है। अस्वाध्यायी इस महिमामय महत्त्व के अवसर से वंचित ही रह जाता है। स्वाध्याय न करने के दुष्परिणाम से ही कुछ लोग जो आयु में प्रौढ़ होते हैं, विचारों में बालक देखे जाते हैं। उनके विचार कच्ची उम्रवालों के समान अपक्व होते हैं और इस अपरिपक्वता की छाया उनके सभी जीवन-व्यवहारों में दिखायी देती है। जो मनुष्य चलता रहता है, उसके पास पाप नहीं आते। स्वाध्याय के माध्यम से व्यक्ति परमात्मा और परलोक से अनायास सम्पर्क स्थापित कर लेता है। स्वाध्याय अभ्यन्तर-चक्षुओं के लिए अंजनशलाका है। दिव्यदृष्टि का वरदान स्वाध्याय से ही प्राप्त किया जा सकता है। जीवन में उन्नति प्राप्त करनेवाले नियमित स्वाध्यायी थे। 00 32 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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