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________________ स्वाध्याय . -आचार्य विद्यानन्द मुनिराज मनुष्य-जीवन पशु-जीवन से श्रेष्ठ है। क्योंकि पशु और मनुष्य के विवेक में अन्तर है। पशु का विवेक आहार, निद्रा, भय, मैथुन तक सीमित है; किन्तु मनुष्य का विवेक इससे ऊपर उठकर चिन्तन की असीमता को मापता है। उसकी जिज्ञासा से दर्शनशास्त्रों का जन्म होता है, उसके ज्ञान से स्व-पर की भेदविद्या का प्रादुर्भाव होता है। वह इह और अपरन्त लोकों के विषय में आत्ममन्थन की छाया में नवीन उपलब्धियों से मानव-समाज के बुद्धि, चिन्तन और चेतना के धरातल का नव-निर्माण करता है। मैं कौन हूँ? जन्म-मरण क्या है? संसार से मेरा क्या सम्बन्ध है? – इत्यादि दार्शनिक प्रश्नावली के ऊहापोह मनुष्य में ही हो सकते हैं। चिन्तन की सहज धारा का उदय सभी मानवों में होता है; किन्तु कुछ लोग ही इस अनाहत-ध्वनि को सुन पाते हैं। सुननेवालों में भी कुछ प्रतिशत व्यक्ति ही गम्भीरता से विचार कर पाते हैं और उन विचारकों में बहुत थोड़े लोग होते हैं, जो अपने चिन्तन की परिणति से चारित्र को कृतार्थ करते हैं। क्योंकि 'बुद्धेः फलं ह्यात्महितप्रवृत्ति:।' ' आत्महित का ज्ञान चिन्तनशील मनीषियों ने ग्रन्थभण्डारों के रूप में अपनी उत्तराधिकारिणी मानव-पीढ़ी को सौंपा है। एक व्यक्ति किसी एक विषय पर जितना दे नहीं सकता, उतना अपरिमित ज्ञान हमारे कृपालु पूर्वजों ने पूर्ववर्ती विचारकों ने हमरे लिए छोड़ा है। जैसे जलकणों से कुम्भ भर जाता है, उसीप्रकार अनेक दार्शनिकों, चिन्तनशीलों, विचारकों एवं विद्वानों के द्वारा प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों की एक-एक शब्दराशि से, भावसम्पदा से, अर्थविशिष्टता से ग्रन्थरूप में जन्म देकर ज्ञान हमारे कृपालु पूर्वजों ने, पूर्ववर्ती विचारकों ने हमारे लिए छोड़ा है और आत्मदर्शन के मार्ग को प्रशस्त किया है। उन सारस्वत महर्षियों के अपार ऋणानुबन्ध से हम उऋण नहीं हो सकते। जब किसी ग्रन्थ को पढ़ते हैं, उसे अल्पकाल में ही पढ़ लेते हैं; किन्तु उसकी एक-एक शब्द योजना में पंक्तिलेखन में, विषय-प्रतिपादन में और ग्रन्थ-परियोजन की प्रतिपादन- विधि में मूललेखक को, विचारक को कितने दिन, मास, वर्ष लगे होंगे, कितने काल की अधीत विद्या का निचोड़ उसने उसमें निहित किया होगा; -इसे परखने का तुलादण्ड हमारे पास क्या है? तथापि यदि हमने किसी की रचना के एक शब्द को, आधे सूत्र को और एक पंक्ति श्लोक को भी यथावत् समझने का प्रयास करने में अपनी आत्मिक तन्मयता लगायी है, तो निस्सन्देह वह लेखक स्वर्गस्थ होकर भी कृतकृत्य हो उठेगा। लेखक के श्रम को उस पर अनुशीलन करनेवाले अनुवाचक ही सफल कर सकते हैं। प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 40 31
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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