SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (4) कन्याकुमारी हिस्टॉरिकल रिसर्च सोसायटी के सचिव डॉ० पद्मनाभन ने लिखा A "Presumably the Jain monks who had been the ceylon migrated through Kanyakumari to the south of which was a large mass of land, subsequently swallowed by sea, the fact that Jain doctrines do not allow their monks to cross the sea must be remembered.” जैनधर्म की देन __ इस विषय पर लेखक ने एक शब्द भी नहीं लिखा है; हालांकि 'बौद्ध धर्म की उपयोगिता' शीर्षक से उस धर्म की देन के बारे में लिखा है। वे शायद यह जानते होंगे कि जैनधर्म बौद्धधर्म से प्राचीन है और उसकी कुछ देन तो होगी ही। उन्हें याद दिलाया जाता है कि जैन तीर्थंकरों, मुनियों, श्रावकों आदि के उपदेश के कारण इस देश में यज्ञों में पशुओं की बलि का लगभग अंत हो गया। बौद्ध तो मांसभक्षण में विश्वास करते हैं, जिसके कारण भी वह धर्म भारत से बाहर फैल सका। इस कारण उसे यज्ञों में पशुबलि बंद होने का संपूर्ण श्रेय देना इतिहास के साथ अन्याय होगा। दूसरे, जैनधर्म के इस सिद्धांत का कि मनुष्य कर्म के कारण ऊँचा या नीचा होता है, न कि जन्म के कारण' —इसका ऐसा असर हुआ कि यह स्वर कुछ हिंदू-ग्रंथों में भी स्थान पा गया। तीसरे यदि वे 'याज्ञवल्क्य स्मृति' पढ़ें, तो पाएंगे कि ब्राह्मणों ने आत्मविद्या का ज्ञान मिथिला के अजैन लोगों से प्राप्त किया। बहुत-सी अन्य बातें भी हैं। यहाँ संक्षेप में संकेत किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारत' पुस्तक में जैनधर्म-संबंधी जो कथन किया गया है, वह स्वस्थ चिंतन का परिणाम नहीं है। उससे विद्यार्थियों के मन में अनेक भ्रान्तियाँ रह जाएंगी। इसके अतिरिक्त यह पाठ जैन-धर्मावलंबियों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचानेवाला है – इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। NCERT जैसी प्रतिष्ठित संस्था को इसे तुरंत संशोधित कराना चाहिए और जो ‘संशोधित पाठ' बने उसको किसी जैन विद्वान् को दिखा लेना चाहिए। उत्सूत्र भाषी को दीक्षाच्छेद 'जिनसूत्रपरिज्ञानादुत्सूत्रं वर्णयेत्पुनः । स्वच्छन्दस्य भवेत्तस्यमूलदण्डो विधानतः ।।' - (आचार्य नरेन्द्रसेन, सिद्धान्तसार:, 10/103) अर्थ:-जिनेन्द्र-उक्त आगम-सूत्र का ज्ञान न होने से जो उत्सूत्र-प्रतिपादन करता है, उस स्वच्छन्द मुनि (आचार्य) को शास्त्रोक्त-विधि से मूलदण्ड (दीक्षाच्छेद) देना चाहिये। 10 30 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy