SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक बार एक महाशय को लोकमान्य तिलक की सेवा में बैठना पड़ा। वे प्रात:काल से ही ग्रन्थों के विविध सन्दर्भ-स्वाध्याय में लगे थे और इसप्रकार दोपहर हो गयी। उठकर उन्होंने स्नान किया और भोजन की थाली पर बैठ गये। आगन्तुक ने पूछा-"क्या आप सन्ध्या नहीं करते?" तिलक महाशय ने उत्तर दिया कि प्रात:काल से अब तक मैं 'सन्ध्या' ही तो कर रहा था। वास्तव में स्वाध्याय से उपार्जित ज्ञान को यदि जीवन में नहीं उतारा गया, तो निरुद्देश्य जलताड़न क्रिया' से क्या लाभ? आँखों की ज्योति को मन्द किया, समय खोया और जीवन में पाया कुछ नहीं तो स्वाध्याय' का परिणाम क्या निकला? स्वाध्याय 'स्व के अध्ययन' के लिए है। संसार की नश्वर आकुलता से ऊपर उठने के लिए है। स्वाध्याय की थाली में परोसा हुआ अमृतमय समय जीवन को अमर बनाने में सहायक है। स्वाध्याय से आत्मिक तेज जागृत होता है। पुण्य की ओर प्रवृत्ति होती है। मोहनीय कर्म का क्षय करने की ओर विचार दौड़ते हैं। पूर्वजों ने जिस वास्तविक सम्पत्ति का उत्तराधिकार हमें सौंपा है, उस वसीयतनामे' को पढ़ना वैसे भी हमारा नैतिक कर्तव्य है। ___'श्रुतस्कन्धे धीमान् रमयतु मनो मर्कटममुम्' यह मन वानर के समान चंचल है, इसे जो शास्त्र-स्वाध्याय में एकाग्र कर देता है, वही धन्य है। स्वाध्याय से हेय और उपादेय का ज्ञान होता है। यदि वह न हो, तो 'व्यर्थ: श्रमः श्रुतौ' अर्थात् शास्त्राध्ययन से होने वाला श्रम व्यर्थ है। स्वाध्याय करने पर भी मन में विचारमूढ़ता है, ज्ञान पर आवरण है; तो कहना पड़ेगा कि उसने स्वाध्याय पर बैठकर भी वास्तव में स्वाध्याय नहीं किया। 'पाणौ कृतेन दीपेन किं कूपे पततां फलम्' अर्थात् दीपक हाथ में लेकर चले ओर फिर भी कुयें में गिर पड़े, तो दीपग्रहण का श्रम व्यर्थ नहीं तो क्या है? शास्त्रों का स्वाध्याय अमोघ दीपक है। यह सूर्यप्रभा से भी बढ़कर है। जब सूर्य अस्त हो जाता है, तब मनुष्य दीपक से देखता है और जब दीपक का भी निर्वाण हो जाता है, तब सर्वत्र अन्धकार छा जाता है; किन्तु उस समय अधीतविध का स्वाध्याय ही आत्मभूति में आलोक आविर्भाव करता है। स्वाध्याय से उत्पन्न आलोक कभी तिमिरग्रस्त नहीं होता। अखण्ड ज्योतिर्मय यह ज्ञान स्वाध्याय-रसिकों के समीप ‘नन्दादीप' बनकर उपस्थित रहता है। स्वाध्याय की उपासना निरन्तर करते रहना जीवन को नित्य नियमितरूप से माँजने के समान है। एक अच्छे स्वाध्यायी का कहना है कि “यदि मैं एक दिन नहीं पढ़ता हूँ, तो मुझे अपने आपमें एक विशेष प्रकार की रिक्तता का अनुभव होता है और यदि दो दिन स्वाध्याय नहीं करता हूँ, तो पास-पड़ोस के लोग जान जाते हैं और एक सप्ताह न पढ़ने पर सारा संसार जान लेता है।" वास्तव में यह ध्रुव सत्य है; क्योंकि जिसप्रकार उदर को अन्न देना दैनिक आवश्यकता है, उसी प्रकार मस्तिष्क को खुराक देना भी अनिवार्य है। शरीर और बुद्धि का समन्वय बना रहे इसके लिए दोनों प्रकार का आहार आवश्यक है। 'अज्झयणमेव झाणं' अध्ययन ही ध्यान है, सामयिक है —ऐसा आचार्य कुन्दकुन्द का प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 00 33
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy