________________
पहले तीर्थंकर ऋषभदेव जी को हिंदू-पुराणों में आठवां माना गया है। बाईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ काशी के इक्ष्वाकुवंशी राजा विश्वसेन के सुपुत्र थे। वह अंतिम तीर्थंकर से 250 वर्ष पहले सम्मेदशिखर से मुक्त हुए थे। अंतिम तीर्थंकर महावीर वर्द्धमान क्षत्रियपुत्र सिद्धार्थ के राजकुमार थे। उन्होंने ईसवी सन् से 527 वर्ष पहले 'निर्वाण' पद पाया था। बिहार प्रांत का ‘पावाग्राम' ही उनका निर्वाणधाम है। जैनशास्त्रों में चौबीसों तीर्थंकरों के जीवन-चरित्र अंकित हैं, परंतु पहले 22 तीर्थंकरों की आयु और कार्य का लंबा-चौड़ा वर्णन जिज्ञासुओं को शंका में डाल देता है। पाश्चात्य विद्वान् तो उन्हें पौराणिक बताते हैं और कहते हैं कि जैनधर्म के संस्थापक 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हैं। किंतु यह मान्यता निराधार है और जैकोबी को यह स्वीकार करना पड़ा कि जैन-मान्यता में कुछ ऐतिहासिकता है। पूर्वकाल में मनुष्यों की आयु और काय लंबी और बड़ी होती थी। मोहन-जोदड़ों (सिंधु) से मानव-शरीरों के जो अस्थिपिंजर मिले हैं, वे इनके साक्षी हैं। वहाँ से लगभग 4-5 हजार वर्ष पुरानी मुद्रायें और मूर्तियाँ मिली हैं, जो कुछ विद्वानों के अनुसार जैन-मूर्तियों से मिलती हैं।
यथार्थत: जैनधर्म का इस काल में आदिप्रचार तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा ही हुआ है। ब्राह्मण एवं बौद्ध-साहित्य और शिलालेखीय साक्ष्य भी यही बताते हैं । यूं तो स्वयं 'ऋग्वेद' . में ही 'ऋषभ' नामक व्यक्ति का उल्लेख है, परंतु विद्वानों को शंका है कि वह जैन-तीर्थंकर
थे। सायण ने वह व्यक्तिवाचक नाम बताया है। यहाँ पर इस हिंदू-पुराण- प्रकरण को स्पष्ट कर देते हैं। उनमें सिर्फ एक ही ऋषभ' का वर्णन है, जो जैन- तीर्थंकर के चरित्र के सर्वथा अनुकूल है। अत: प्रो० विरूपाक्ष वहियर वेदतीर्थ के मतानुसार 'ऋग्वेद' में प्रथम तीर्थंकर का उल्लेख मानना अनुचित नहीं है। बौद्ध-ग्रंथ न्यायबिंदु' (अ0 3), 'सतशास्त्र' और 'आर्यमंजुश्री मूलकल्प' में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का उल्लेख है और उन्हें जैनधर्म का प्रतिपादक' लिखा है।
उधर कलिंग की हाथीगुम्फावाले प्रसिद्ध (ई० पूर्व द्वितीय श०) शिलालेख में अग्रजिन (ऋषभदेव) की उस मूर्ति का उल्लेख है, जिसे नंदवर्द्धन पटना ले गया था। यहाँ उस काल की अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियाँ मिलती हैं। अतएव यह स्पष्ट है कि ऋषभदेव की मान्यता नंद-राजाओं के काल में भी प्रचलित थी। 'कंकाली टीला' मथुरा से कुषाणकालीन ऐसी जिन-मूर्तियाँ निकली हैं, जिन पर ऋषभ आदि अनेक तीर्थंकरों के नाम अंकित हैं। वहाँ एक शिलापट (आयागपट्ट) ऐसा मिला है, जिस पर कई तीर्थंकरों की मूर्तियाँ अंकित हैं और जिसे प्रो० बुल्हर व स्मिथ तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय का बताते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता ई० पूर्व आठवीं शताब्दी में भी प्रचलित थी। अब यदि यह तीर्थंकर वास्तव में हुये ही न होते, तो उस प्राचीन काल के लोग उनकी मूर्तियाँ क्यों बनाते और क्यों उनके नाम की माला जपते? अत: जैनों की
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
10 17