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मान्यता की 24 तीर्थंकरों ने क्रमानुसार इस काल में धर्म का प्रतिपादन किया उचित प्रतीत होती है।
जैनशास्त्र कहते हैं कि मध्यवर्ती तीर्थंकरों के समय में जीव सरल और विवेकी थे, इसलिये जैनधर्म के आचार-नियमों का प्रतिपादन सामान्यरूप में किया गया था— उनकी भेद-विवक्षा नहीं की गई थी। वे सामयिक चरित्र का पालन करते थे, परंतु पहले और अंतिम तीर्थंकरों के समय जीव क्रमश: भोले भाले थे, इसलिये उन्हें धर्म के आचार-विचार बताये गये थे (मूलाचार देखो ) । पार्श्वनाथ के शिष्यगण कुशील आदि दोषों का प्रायश्चित पृथक् न लेकर समष्टिरूप में लेते थे, परंतु महावीर ने प्रत्येक पाप का पृथक् उल्लेख करके उसका प्रायश्चित भी अलग किया। अंतिम तीर्थंकर का बताया हुआ शासन अब तक चला आ रहा है। इस तरह तीर्थंकरों की भाव-परंपरा अभी तक जीवित है । उसकी यह विशेषता है कि उसमें केवल त्याग और साधना के चरम प्रतीक साधुओं आदि अर्जिकाओं (साध्विओं) को ही स्थान प्राप्त हो, यह बात नहीं वरन् ग्रहस्थ श्रावक और श्राविकाओं को भी उसमें स्थान प्राप्त था। दोनों के सहयोग से ही जैनसंघ का अभ्युदय हुआ था और वह अब तक मौजूद है।
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- (साभार उद्धृत 'भारत और मानव संस्कृति, खंड - 1, पृष्ठ XXVIII-XXLX तथा पृ० 112-115 तक से)
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समय के मनुष्यों को 'ऋजुजड़' (अर्थात् सरल परिणामी भोलें अज्ञानी जीव ) कहा गया है तथा अंतिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर के समय पंचमकाल का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगने से शिष्यों में कुटिलता बढ़ जाने से उन्हें 'वक्रजड़' (अर्थात् छल-कपट में 'चतुर अज्ञानी जीव ) कहा गया है। ये दोनों ही आचरण में भूल करते थे, अत: इन्हें प्रतिदिन 'प्रतिक्रमण' की अनिवार्यता बतायी गयी है। शेष मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शासनकाल के जीव 'ऋजुविज्ञ' (सरलपरिणामी व समझदार) होने से उन्हें 'प्रतिक्रमण' प्रतिदिन अनिवार्य नहीं था; क्योंकि वे त्रुटियाँ नहीं करते थे । वे धर्मविधि सावधानीपूर्वक शुद्धरीति से करते थे।
सरस्वती - महिमा
“भुवणत्युयत्थुणदि जदि, जगे सरस्सदी ! संततं तुहं तहवि । गुणतं लहदि तहिं को तरदि जगे जणो अण्णो । । ” - ( आचार्य पद्मनन्दि, 57/738 ) अर्थ:—हे सरस्वती ! यदि लोक में सम्पूर्ण विश्व मिलकर भी आपकी निरंतर स्तुि करे, तो भी आपके गुणों का पार नहीं पा सकता है; तब फिर आपके गुणों का पार पाने में कोई एक व्यक्ति कैसे समर्थ हो सकता है 1
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर 199