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जब यह गृहस्थ अपनी वासनाओं को जीत लेगा उन पर अधिकार जमाने की क्षमता हासिल कर लेगा, तब वह पापों और दोषों से बचने के लिये अहिंसा आदि व्रतों को धारण करेगा। उसका नैतिक चरित्र दृढ़ होगा और हृदय दया से परिपूर्ण होगा। नागरिक आध्यात्मिक उन्नति करता हुआ गृहस्थ के ग्यारह दर्जों को पालता हुआ, जब कषाय और कामवासना को पूर्णतः जीतने के लिये कटिबद्ध होता है, तब वह साधु होता है और दिगम्बर भेष में ज्ञान - ध्यान में लीन रहकर लोकोपकार में अपनी सारी शक्ति लगा देता है । साधु होने के पहले वह गृहस्थ के सातवें दर्जे से पूर्ण ब्रह्मचर्य का अभ्यास प्रारंभ करता है और ग्यारहवें दर्जे में पहुँचकर अपने तन पर सिर्फ एक लंगोटी रखता है । उसका ध्येय साधुपद धारण करके स्वयं बंधनमुक्त होना और लोक को बंधनमुक्त करना होता है । यह है जैन-संस्कृति की साधारण रूपरेखा ।
तीर्थंकर - परम्परा
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जैनदर्शन का विश्वास है कि जैनधर्म शाश्वत है, उसके तत्त्वों का कभी नाश नहीं होता । अहिंसा और मैत्री मनुष्य के लिए प्रकृति - सुलभ हैं - वे मिटें कैसे ? और जैनधर्म की आधारशिला अहिंसा ही है। ऋतु परिवर्तन की तरह धर्म का भी उन्नति और अवनति होती है। इसलिए जैनी कहते हैं कि प्रत्येक कल्पकाल में चौबीस तीर्थंकर क्रमश: जन्म लेकर जगत् का उद्धार करते हैं। इस कल्पकाल में भी चौबीस तीर्थंकर हो चुके हैं, जिनमें से पहले श्री ऋषभदेव थे और अंतिम वर्द्धमान महावीर ।
ऋषभदेव से लेकर वर्द्धमान महावीर तक जैन - मान्यता के अनुसार 24 महापुरुष हुए हैं, जिनको 'तीर्थंकर' कहते हैं । तत्त्वज्ञान की दृष्टि से उन सबने एकप्रकार के ही उपदेश दिये हैं। समय के अनुसार आचार का बदलना अनिवार्य होने पर भी तत्त्वज्ञान के विषय में सभी एकमत हैं । यह बात ऐतिहासिकों को न जँचे, यह सम्भव है; किन्तु हमारे पास इसकी सत्यासत्यता जाँचने का कोई साधन नहीं है। इन सभी तीर्थंकरों का जो अस्तित्वकाल जैन विद्वान् बताते हैं, उनकी परीक्षा करने का भी हमारे पास कोई साधन नहीं है। फिर भी ऋषभदेव, शान्तिनाथ और नेमिनाथ – इन तीनों प्रागैतिहासिक पुरुषों के अस्तित्व में संदेह की गुंजाइश नहीं है । उनके निश्चित समय के बारे में भले ही संदेह हो सकता है। पार्श्वनाथ और महावीर के विषय में तो अब ऐतिहासिक लोग भी असंदिग्ध हो गये हैं । पर जैन तत्त्वज्ञान और आचार के उपदेशों के रूप में जो कुछ आज हमारे सामने ग्रंथबद्ध मौजूद है, वह तो तीर्थंकर महावीर के उपदेश का ही फल है । महावीर ने तीर्थंकरों की परम्परा में से बहुत कुछ सीखा और समझा होगा और अपने उपदेश की धारा उसी परम्परा के अनुरूप बहायी होगी। महावीर के उपदेश के रूप में जो कुछ हमारे सामने है, उसमें से बहुत कुछ पूर्व तीर्थंकरों का ही उपदेश समझना चाहिये, शब्द चाहे भले ही महावीर के हों ।
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर 199