SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हुए उस युग को प्रभावित किया । उनकी मान्यताएँ मात्र बौद्धिक ही नहीं, व्यावहारिक भी हैं। यद्यपि सूत्रकृतांग जैनदर्शन का ग्रन्थ है, फिर भी उसमें जैनेतर मान्यताओं का विवेचन इसलिए प्रासंगिक है कि साधक विभिन्न धारणाओं-मान्यताओं को समझकर, यथार्थ को सम्पूर्ण आस्था और श्रद्धा के साथ स्वीकार करे । क्योंकि मिथ्यात्व की बेडी सबसे भयानक है। ३) दार्शनिक संवाद - यह एक दार्शनिक संवाद है जो उपनिषदों के शैली की याद दिलाता है । द्वितीय श्रुतस्कन्ध का छठाँ आर्द्रकीय' अध्ययन पाँचों मतावलम्बियों (गोशालक, बौद्धभिक्षु, ब्राह्मण, एकदण्डी, परिव्राजक (सांख्य), हस्तितापस) के साथ आर्द्रककुमार का जो वाद-प्रतिवाद हुआ, उसका इसमें संकलन है । इसमें आर्द्रकमुनि सरस-कथा शैली में, संवादें के रूप में, भ्रान्त मान्यताओं का निराकरण करके, स्वमान्यता की प्रस्थापना, बडी सहजता के साथ करते हैं। ___ 'आइक्खमाणो वि सहस्समज्झे एगतयं सारयती तहच्चे ।' (२.६.४) अध्यात्मयोग की यह महान अनुभूति आर्द्रक ने सिर्फ दो शब्दों में ही व्यक्त करके गोशालक की बाह्य दृष्टि-परकता को ललकार दिया है । क्योंकि वे अभी तक उनसे मिले नहीं थे । संवादों में इस प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूतियों से आर्द्रकीय अध्ययन बडा हीरोचक व शिक्षाप्रद बन गया है। उपसंहार : द्वितीय अंग आगम की तुलना बौद्ध परम्परा मान्य 'अभिधम्मपिटक' से की जाती है । सूत्रकृतांग में जहाँ जैनदर्शन की प्रमुख मान्यताओं का वर्णन-विश्लेषण है, वहीं भारतीय संस्कृति में उपजी समस्त मान्यताओं का भी विस्तारपूर्वक प्रामाणिकता से विवेचन है। अगर कोई यह कहे कि एक सम्पूर्ण आगम का नाम बताइए, जिसे पढने पर सम्पूर्ण भारतीय दर्शन तथा जैन आचारसंहिता का अध्ययन हो सके, तो नि:संदेह सूत्रकृतांग का नाम सर्वप्रथम उभर आता है । दर्शन के साथ जीवन व्यवहार के उच्च आदर्श भी यहाँ उपस्थित हैं । कपट, अहंकार, जातिमद, ज्ञानमद आदि पर भी कठोर प्रहार किये हैं। सरल, सात्विक, सामाजिक जीवन दृष्टि को विकसित करने की प्रेरणा सूत्रकृतांग से मिलती है। ७) नालंदीय अध्ययन – यात प्रथम गणधर इंद्रभूति गौतमांचा उपदेश आहे. यामध्ये प्रथमच 'श्रावकाचार' मांडला आहे. सर्व अंगांचे सार म्हणजे 'आचारांग' यात अहिंसा, समता, वैराग्य, प्रमाद इ. मुद्दे आहेत. कठीण, क्लिष्ट लहान सूत्रातून गहन अर्थ सांगितला आहे. भद्रबाहूंना हा अपुरा वाटला. म्हणून त्यांनी भाग दोन जोडला असावा,असे एक मत आहे. दुसऱ्या श्रुतस्कंधात त्यांनी साधूंसाठी वस्त्र, पात्र, भिक्षा, चातुर्मास हे सर्व नियम सांगितले आहेत. समजायला सोपे आहे. प्रथम भागात संक्षिप्त सूत्रे तर दुसऱ्या भागात मोठमोठी वाक्ये आहेत. आचारांगाचे श्रुतस्कंध वेगळे आहेत. तर सूत्रकृतांगाचे दोन्ही भाग एकमेकाला पूरक असून व पद्यमय भाग एकाच नाण्याच्या दोन बाजू आहेत, असे वाटते. मोठमोठी वाक्ये असली तरी सर्व अर्थपूर्ण आहेत. उपसंहार : वैदिक परंपरेत उपनिषदांचे जे स्थान आहे ते जैन परंपरेत सूत्रकृतांगाचे आहे. इतरांचे विचार देताना त्यांचे जैनीकरण केले नाही. यात जैनांच्या मनाचा प्रांजळपणा दिसतो. सूत्रकृतांगाच्या चर्चा जेवढ्या ज्ञानाच्या बाजूने जातात तेवढ्याच व्यवहाराच्या बाजूनेही जातात. पुस्तकीज्ञान हेच केवळ ज्ञान नसून, व्यवहारज्ञान हेही ज्ञान असल्यामुळे नागरिकशास्त्राचे वेगळे धडे देण्याची गरज जैनांना एका अर्थाने नाहीच.
SR No.521251
Book TitleSanmati Teerth Varshik Patrica 2013
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalin Joshi, Kaumudi Baldota, Anita Bothra
PublisherSanmati Teerth Pune
Publication Year2013
Total Pages72
LanguageMarathi
ClassificationMagazine, India_Marathi Sanmati Teerth, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy