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खलनायक नसेल तर नायकाचे सून येत नाही, त्याप्रमाणे गोशालकासारखा कृतघ्न शिष्य नसता तर महावीरांची आध्यात्मिक उंची दिसली नसती. त्यांच्या विचारांचे मंथन करविण्यास व पंचमहाव्रतांचे नवनीत काढण्यात गोशालकाच्या आरोपांचा खूप मोठा वाटा आहे. एवढे असूनही गोशालकाच्या 'नियतिवादा'ला षर्शनात स्थान मिळाले नाही हेही आश्चर्यच !
स्वत:चे मत स्वच्छ व स्पष्ट असेल तर विरोधीही आपलासा करता येतो, हे गौतम-पेढालपुत्राच्या संवादावरून स्पष्ट होते जे आजच्या राजकारण्यास उपयोगी आहे. अनेक मतप्रवाह असले तरी वादविवाद न करता सुसंवाद साधता येतो, यावरही येथे प्रकाश पडतो. समन्वयवृत्ती, कृतज्ञता, परस्परांमधील आदर इ. गुणांची जोपासनाहीदसून येते. गौतम-महावीर म्हणजे 'ग्रंथ' अध्ययनातील गुरु-शिष्य नात्याचा आदर्श परिपाक होय, जे आजच्या शिक्षण व्यवस्थेसाठी अतिशय मार्गदर्शक आहे.
थोड्या फार त्रुटी वगळता ‘स्वसमय-परसमय' या केंद्रस्थानी असलेल्या विषयाला, वरील व्यक्तिरेखांमुळे रोचकता आली आहे. पक्षांतर, धर्मांतर करणाऱ्यांसाठी हा जणू आदर्श वस्तुपाठच आहे.
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(१९) सूत्रकृतांग : एक सम्पूर्ण आगम
हंसा नहार १) एक गाथा में सार -
बुज्झिज्जत्ति तिउट्टिज्जा बंधणं परिजाणिया।
किमाह बंधणं वीरो, किं वा जाणं तिउट्टई ? ।। सम्पूर्ण आगम का सार, सूत्रकृतांग का सम्पूर्ण तत्त्वचिन्तन इस गाथा में समाविष्ट हो गया है । देखने में आता है कि कुछ लोग ज्ञानी हैं, पर क्रिया में उदासीन हैं। कुछ लोगों में क्रिया है, पर वे ज्ञान में उदासीन हैं । दोनों प्रकार के मनुष्य बन्धन यानी अष्टकर्मबन्धन और आरम्भ-परिग्रह से दूर नहीं हो सकते ।
क्रियाजड के उदाहरण – मेरा तो तप हमेशा चालू रहता --- क्या तप को समझा ? रसनेन्द्रिय पर संयम आया ? मैं तो मन्दिर गये बिना पानी भी नहीं पीती --- क्या भगवान को समझा ? मैं तो रोज की चार सामायिक करती हूँ --- क्या समताभाव आया ?
शुष्कज्ञानी का उदाहरण - मैं तो जैनॉलॉजी की परीक्षा में हमेशा प्रथम आती हैं --- आचार में कुछ आया
जैनदर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त - ‘ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः ।'
२) तीन अध्याय जिसमें अन्य मतों, दर्शन एवं उनकी मान्यताओं की चर्चा - अ) स्वसमय और परसमय का प्रतिपादन है ऐसा प्रथम श्रुतस्कन्ध का प्रथम 'समय' अध्ययन । ब) जहाँ अनेक दर्शनों या दृष्टियों का संगम होता है ऐसा प्रथम श्रुतस्कन्ध का बारहवाँ 'समवसरण' अध्ययन
क) श्वेत कमल की उपमा के माध्यम से धर्म, धर्मतीर्थ तथा निर्वाण के महत्त्व को समझानेवाला, एक ललित काव्य । कल्पना का रसास्वाद करानेवाला द्वितीय श्रुतस्कन्ध का प्रथम पुण्डरीक' अध्ययन ।
आधारस्तम्भ, तीन तत्त्व हैं - जीव, जगत्, आत्मा । परन्तु भारतीय संस्कृति मुख्य रूप से आत्मा के इर्दगीर्द घूमती है । आत्मा के बन्धन एवं मुक्ति ही प्रत्येक धर्मदर्शन का लक्ष्य है। आत्मवाद, कर्मवाद, परलोकवाद, मोक्षवाद इन चार विचारों में भारतीय दर्शनों के सामान्य सिद्धान्त समाविष्ट होते हैं । उस समय कितनी धारणाएँऔर मतमतान्तर चलते थे ? ३६३ मत थे । भ. महावीर ने सभी मान्यताओं को, स्याद्वाद की स्थापना कर, समन्वय करते