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काव्यानुवाद:
(गूर्जरमूलम्)
कारण के
लालजी कानपरिया
मारा उदरमा सळगतां अग्निने जो से शांत की शके तेम न होय तो सळगावी दो जगतना सर्व अन्नभंडारो; कारण के ओना होवानो कोई अर्थ नथी. मारां नग्न शरीरने जो से ढांकी शके तेम न होय तो फूंकी मारो कापड बनावती सर्व मिलोने; कारण के ओना होवानो कोई अर्थ नथी. आवडी मोटी धरती पर मारे रहेवा एक झूपडं न होय तो की नाखो जमीनदोस्त गगनचुंबी महेलातोने; कारण के अना होवानो कोई अर्थ नथी.
मारां जीवतरमां जो चपटीय अजवाळू पाथरी खरे तेम न होय तो ओलवी नाखो पेला जळहळता सूर्यने कारण के अना प्रकाशवानो कशो ज अर्थ नथी. आ पृथ्वी पर मने जन्म आपी | अनी जवाबदारीओमांथी जो ए छटकी जतो होय तो कही दो पेला ईश्वरने के संकेली ले एनी सृष्टिने संकेली ले अनी सर्व लीलाओने अने क्षीरसागरमां जईने निरांते ऊंघी जाय सुंवाळी शेषशैया पर कारण के अने जागता रहेवानो कोई अधिकार नथी.
काव्यसंग्रह:
'सूर्यचंद्रनी साखे'
पार्श्व प्रकाशन, अमदावाद प्र.आ.,२००७, काव्य क्रमांक १२७, पृ. १४५-१५६