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________________ (२) स्तवन बालडां रे पातिकडां तमे, शुं करशो हवे रहीने रे; श्रीसिद्धाचल नयणे निरख्यो, दूर जाओ हवे वहीने रे..... ॥१॥ काळ अनादि लगे तुम साथे, प्रीत करी निर्वहीने रे; आज थकी प्रभुचरणे रहेयुं, एम शिखवियुं मनने रे... ॥२॥ दुषमकाळे इणे भरते, मुक्ति नहि संघयणने रे; पण तुम भक्ति मुक्तिने खेंचे, चमक-उपल जेम लोहने रे.... ॥३॥ शुद्ध सुवासन चूरण आप्युं, मिथ्यापंक शोधनने रे; तेहथी आतम थयो मुज निर्मळ, आनंदमय तुज भजने रे.... ॥४॥ अक्षयनिधान तुज समकित पामी, कुण वंछे चल धनने रे; शांतसुधारस नयन कचोले, सींचो सेवक तनने रे.... ॥५॥ बाह्य अभ्यंतर शत्रु केरो, भय न होवे मुजने रे; सेवक सुखियो सुजस विलासी, ए महिमा प्रभु तुजने रे... ॥६॥ नाममंत्र तुमारो साध्यो, ए थयो जग मोहनने रे; तुज मुखमुद्रा निरखी हरखुं, जेम चातक जलधरने रे... ॥७॥ Jain Education International तुजविण अवरने देव करीने, नवि चाहुं फरी फरीने रे; ज्ञानविमल कहे भवजल तारो, सेवक बाह्य ग्रहीने रे..... ॥८॥ स्तवनम् अतिदीना अयि पातकपुञ्जाः, किं कुरुथाऽथो वसनं रे; दृष्टः सिद्धगिरिर्मयका तत् कुरुत विदूरे वहनं रे ..... ॥१॥ कालेऽनादौ मया भवद्भिः, कृतं प्रीतिनिर्वहणं रे; अथ प्रभुवरचरणाश्रयणाय हि, शिक्षितमन्तः करणं रे..... ॥२॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.521016
Book TitleNandanvan Kalpataru 2006 00 SrNo 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtitrai
PublisherJain Granth Prakashan Samiti
Publication Year2006
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Nandanvan Kalpataru, & India
File Size10 MB
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