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......नन्दनवनकल्पतरुः २......
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___ एवंविहस्स देवस्स जा आणा तस्सब्भासो चिअ तस्साराहणा । जो को वि तं आणं जहासत्तिं पालेइ तस्स तयणुरूवं फलं अवस्सं लब्भइ । जहा कोइ रोगी पुरिसो आरुग्गं पाविउकामो सुवेज्जसमीवं गच्छइ निययं वाहिं च तं दंसेइ । तया सो वेज्जो तस्स आउरस्स ओसहाई देइ पत्थं च पालेउं कहेइ । सो आउरो जेत्तियं तव्वयणं पालेइ ओसहाई च गहेइ तेत्तियं तस्स रोगो णस्सइ । जइ संपुण्णं पालेइ ता तस्स सव्वाओ वि वाहीओ विणस्संति सो य नीरोगो भवइ । जइ न पालेइ ता न भवइ। ___एमेव तस्स देवस्स आणा जेण जेण रूवेण पालेज तेण तेण रूवेण धुवं संसारक्खओ भवइ । जइ संपुण्णं पालेज ता निच्छएण मोक्खो पाविज्जइ । जइ न पालेज ता न।
___ जं च 'जइ सो पसन्नो न हवइ ता पूयाईहिं किं लाहो ?' इइ संकियं तत्थ - जहा चिंतामणिरयणं अचेयणं तहा अपसन्नमवि फलइ, तहेव वीयरागो देवो जइ वि पसन्नो न हवइ तह वि तस्स पूयाईण फलं लब्भइ।
तो, तस्स देवस्स आणा का ? तेण के रिसो धम्मो भासिओ ? तस्स पूया केण केण कहं च कायव्वा? इच्चाइयं अन्नत्थ पत्तंमि लेहिस्सं ति सं।
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पेच्छति जहा सचक्खू पुरिसो दीवेण अंधकारे वि। जिणसासणदीवेण उ पासति एवं णरो मतिमं ।।
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