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________________ जिनमें ( १ ) सराफ बन्धुओं के बीच, (२) सराक हृदय (३) जैन संस्कृति के विस्मृत प्रतीक आदि प्रमुख हैं । विद्वत् अभिनन्दन ग्रन्थ तैयार कर जमादारजी ने एक सर्वाधिक श्रेष्ठ कार्य किया है। इसके माध्यम से उन्होंने पिछले ११ - १ ।। सौ वर्षों के मध्य होने वाले दिगम्बर जैन विद्वानों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला है । इस ग्रन्थ ने यथार्थतः एक बड़ी भारी रिक्तता को भरा है । विश्वास है कि भविष्य में भी वे इसी प्रकार के ऐतिहासिक मूल्य के उपयोगी अनोखे कार्य करते रहेंगे । पं. बालचन्द्रजी शास्त्री ( सोरई, वि. सं. १९६२) जिनवाणी के उन एकनिष्ठ सेवकों में से हैं, जो समर्पित भाव से शोध कार्यों में ही व्यस्त रहते हैं । सभासोसायटियों में जाकर अपना प्रदर्शन करना उनके स्वभाव के सर्वथा विपरीत रहा है । उनके कार्यों से ही समाज उन्हें जानती है, साक्षात्कार से सम्भवतः नहीं । जैन शौरसेनी के सुप्रसिद्ध पुराणेतिहास के मूल ग्रन्थ 'तिलोयपण्णति' (दो भागों में ) जंबदीवपणत्तिसंगहो एवं लोकविभाग जैसे दुरूह ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद आपने ही किया है। इनके अतिरिक्त पद्मनन्दी पंचविंशति, पुण्याश्रव कथाकोष, ज्ञानार्णव, धर्म-परीक्षा, सुभाषित-रत्न-संदोह जैसे जैन विद्या के सरस किन्तु दुर्लभ ग्रन्थों का भी आपने सम्पादन एवं अनुवाद कर उन्हें सर्वसुलभ बनाया है । पं. चैनसुखदासजी ( भादवाँ जयपुर, राजस्थान ) राजस्थान के उन महामनीषियों में से थे, जिन्होंने समग्र जैन समाज के साथ-साथ राजस्थान के जैनेतर विद्वानों एवं समाजसेवियों के हृदयों पर अपने अगाध पाण्डित्य, निश्छल वृत्ति, परम औदार्य एवं निःस्वार्थ सहयोगी मनोवृत्ति की गहरी छाप छोड़ी थी। उन्होंने बिना किसी धर्म, जाति एवं प्रान्तीय भावना के हर साधनविहीन छात्र की सहायता की थी। इसी कारण वे छात्र - समुदाय के लिए कल्पवृक्ष माने जाते थे । राजस्थानी समाज उन्हें दीवान अमरचन्द्र पण्डितरत्न टोडरमल एवं सदासुख जैसे नर - रत्नों की सम्मिलित आत्मा का अवतार मान कर पूजा करती रही। आज भी उनका नाम सुन कर उनके भक्त भाव-विह्वल हो उठते हैं। प्रकृति ने उन्हें एक पैर से लंगड़ा बना कर उसकी शक्ति को उनकी प्रतिभा से संयुक्त कर दिया था; अतः एक ओर वे जहाँ ओजस्वी एवं प्रभावशाली वक्ता थे, वहीं पर वे उच्चकोटि के शिक्षक, लेखक, सम्पादक, अनुवादक, विचारक, पत्रकार एवं कवि भी थे। उनके प्रमुख ग्रन्थों में 'जैनदर्शनसार', 'आर्हत- प्रवचन ' तथा 'दार्शनिक के गीत' प्रसिद्ध हैं । ब्रह्म. सीतलप्रसादजी का साहित्यिक परिचय तो पीछे लिखा जा चुका है । उन्होंने अपने जीवन काल में लगभग ७६ ग्रन्थों की रचना की जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं- (१) लाइव्हज ऑफ २३ तीर्थकराज़ ( २ ) व्हाट इज़ जैनिज्म, (३) वृहत् जैन शब्दार्णव, (४) तत्त्वमाला, (५) गृहस्थ - धर्म, (६) अनुभवानन्द, (७) स्वसमरानन्द, (८) आत्मधर्म, (९) सुलोचना - चरित्र, (१०) सेठ माणिकचन्द्र का जीवन चरित्र, (११) जैनधर्म प्रकाश, (१२) मोक्षमार्ग प्रकाशक, (१३) महिला रत्न मगनबाई का जीवन चरित्र, (१४) जैन-बौद्ध तत्त्वज्ञान (दो भाग ) (१५) जैनधर्म में अहिंसा । इनके अतिरिक्त निम्न ग्रन्थों पर उनकी लिखी हुई टीकाएँ प्रसिद्ध हैं - ( १ ) नियमसार, ( २ ) समयसार, (३) प्रवचनसार, (४) पंचास्तिकाय, (५) समाधि - शतक, (६) इष्टोपदेश, (७) समयसार - कलश, (८) तारण स्वामीकृत श्रावकाचार, (९) त्रिभंगीसार आदि । (क्रमश:) तीर्थंकर : नव- दिस. ७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only ९७ www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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