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पं. नाथूलालजी शास्त्री समाज के उन विद्वानों में हैं, जिन्हें सभी वर्ग के विद्वानों एवं समाजों का विश्वास प्राप्त है। उन्हें जैन समाज के 'अजातशत्रु' की संज्ञा प्रदान की जा सकती है। वे जैन समाज के मुकुटमणि सेठ हुकुमचन्दजी की आशाओं एवं आकांक्षाओं के प्रतीक हैं। उन्होंने जिस क्षेत्र की ओर झांका, वहीं उन्हें लोकप्रियता मिली। अध्यापन के क्षेत्र में आज भी उन्हें शिष्यों द्वारा वही सम्मान प्राप्त है, जो पुराणयुग में गुरुजनों को उपलब्ध था। सेठों के बीच में भी वे रहे। उनका विश्वास प्राप्त करना बड़ा कठिन होता है ; किन्तु पिछले लगभग ४०-४५ वर्षों से वे उनके कण्ठहार बने हुए हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में वे आये। 'सन्मतिवाणी' के माध्यम से उन्होंने समाज को उद्बोधित किया और दूरवर्ती पाठकों ने उन्हें अपना विद्यागुरु मान लिया । प्रतिष्ठाचार्यों को महन्त तथा लालची माना जाने लगा था, किन्तु आपने अपने आचारविचार, निर्लोभवृत्ति तथा प्रभावक पाण्डित्य के प्रभाव से जनमानस को परिवर्तित करने का पूर्ण प्रयास किया है। जैन धर्म-दर्शन का आपने न केवल अध्ययन मात्र किया, अपितु उसे धर्मराज युधिष्ठिर की तरह ही अपने जीवन में उतारने का सफल प्रयास भी किया है।
पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य (सोरई, वि. सं. १९६२) जैन धर्म-दर्शन के प्रबुद्ध विचारकों की श्रेणी में प्रतिष्ठित हैं। आप राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत तथा राष्ट्र के आह्वान पर महात्मा गांधी के आन्दोलनों में सक्रिय सहयोग करते रहे, फलस्वरूप जेल-यातनाएँ सहीं। - जैन समाज के आप प्रथम व्याकरणाचार्य हैं। जैनतत्त्व-विद्या के प्रति आपकी गहरी अभिरुचि रही है। इस क्षेत्र में आपकी “जैनतत्त्व मीमांसा की मीमांसा' तथा “जैन दर्शन में कार्य-कारण भाव और कारक व्यवस्था" अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचनाएँ मानी जाती हैं।
पं. नरेन्द्रकुमारजी जैन (कारंजा, १९०६ ई.) समाज के वयोवृद्ध विद्वान हैं। आपकी मातृभाषा मराठी है। स्वामिकात्तिकेयानुप्रैक्षा पंचाध्यायी, अष्टसहस्री, प्रमेयकमल मार्तण्ड, मोक्षमार्ग प्रकाशक, अष्टपाहुड, जैन सिद्धान्त-प्रवेशिका, क्षत्रचूड़ामणि का मराठी अनुवाद कर मराठी भाषा-भाषियों के लिए उन्होंने उक्त ग्रन्थों को सुलभ बना कर महाराष्ट्र में दैनिक स्वाध्याय की प्रवृत्ति जागृत की है।
पं. बाबूलाल जमादार (ललितपुर, १९२२ ई.) का जीवन बहुरंगी रहा है। विद्वान्, पण्डित, लेखक, प्रचारक, प्रशासक, व्याख्याता, व्यवस्थापक, संगठनकर्ता, प्रकाशक, संपादक, प्रतिष्ठाचार्य, शास्त्रार्थकर्ता और यहाँ तक कि मुक्केबाजी एवं अखाड़ेबाजी के आवश्यक तत्त्वों से मिल कर ही उनका व्यक्तित्व गठित हुआ है। वे सत्याश्रयी हैं और अपनी बात को मेज ठोक-ठोक कर निर्भीकता के साथ कह सकते हैं। यही कारण है कि जैन समाज ने उनके प्रति अपना अडिग विश्वास प्रकट किया है। अ. भा. शास्त्री परिषद् के वे सफल संगठनकर्ता एवं उसके लक्ष्यों की पूर्ति के लिए वे दृढव्रत लिये हुए हैं। उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचनाएँ की हैं
आ.वि.सा. अंक
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