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________________ किया है; किन्तु उनके द्वारा सम्पादित-अनूदित 'कल्याणकारक' एवं 'भरतेश-वैभव' ऐसे महान् ग्रन्थ हैं, जो उन्हें विद्वत्जगत् में सिरमौर बनाकर निरन्तर पूजा प्रदान कराते रहगे । पं. जगन्मोहनलालजी शास्त्री (शहडोल, १९०१ ई.) बुन्देल भूमि के यशस्वी सुत एवं जैन समाज के हृदय-सम्राट हैं। वे स्वयं अपने को तुच्छ ज्ञानी मानते हैं, वस्तुतः उनका यही भाव उनका सबसे बड़ा बड़प्पन एवं उनकी निरभिमानता व्यक्त करता है । जिसने 'श्रावक धर्म प्रदीप' 'श्रावकाचार सारोद्धार', 'अमृत कलश' जैसे ग्रन्थों का सरस एवं सुगम भाष्य लिखकर स्वाध्याय-प्रेमियों के लिए साक्षात् अमृत कलश तैयार कर दिया हो; जिसने १९३० ई. में राष्ट्र के आह्वान पर विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार कर मामली खद्दर पहिनने का व्रत ग्रहण किया हो, सार्वजनिक संस्थाओं की निःस्पृह एवं निःस्वार्थ वृत्ति से सेवा की हो, साधनविहीन उन्ननीषु छात्रों की हर प्रकार की सहायता की हो, और अब घरद्वार से विरत होकर जो स्वयं तीर्थवासी बनकर स्वाध्यायमग्न रहकर तथा अजितज्ञानराशि को निरन्तर बाँटते रहने की जिन्होंने कठोर प्रतिज्ञा की हो; ऐसा महापुरुष यदि अपने को तुच्छ एवं नगण्य कहता है तो उसकी वह तुच्छता एवं नगण्यता भी जैन समाज के लिए गौरवशालिनी निधि मानी जाएगी। पं.हीरालालजी शास्त्री के वसुनन्दी श्रावकाचार, जिनसहस्रनाम, जैन धर्मामृत, प्रमेयरत्नमाला, दयोदय, सुदर्शनोदय, वीरोदय, छहढाला, द्रव्यसंग्रह, श्रावकाचारसंग्रह आदि प्रकाशित ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं। ग्रन्थ-सम्पादक एवं लेखक, होने के साथ-साथ वे कुशल वक्ता एवं कवि भी हैं। आपके संग्रहालय में लगभग २५०० उच्चस्तरीय ग्रन्थों का संकलन है। उनका सिद्धान्त है कि "भले ही फटे वस्त्र पहिनो, एक समय खाना खाकर रहो, किन्तु नवीन ग्रन्थ खरीदो"।। __पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री का नाम सन् १९२७ ई. के बाद के विद्वानों की श्रेणी में अग्रगण्य है। शौरसेनी आगम-साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने जो कार्य किये, उनकी चर्चा पीछे हो चुकी है। उनकी प्रतिभा बहुमुखी रही है। न्याय-दर्शन के क्षेत्र में उन्होंने पं. महेन्द्रकुमारजी द्वारा सम्पादित न्याय कुमुदचन्द्र की विस्तृत पाण्डित्यपूर्ण प्रस्तावना लिखी और शोधार्थियों तथा स्वाध्यायार्थियों के लिए "जैन न्याय" नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया तो जन-सामान्य के लिए "जैनधर्म", "नमस्कार-माहात्म्य", "भ. ऋषभदेव" तथा “भ. महावीर का अचेलक धर्म' का प्रणयन किया एवं सोमदेव कृत "उपासकाध्यान" का सम्पादन, अनुवाद एवं समीक्षात्मक अध्ययन कर जिनवाणी की अपूर्व सेवा की है। __ पं. फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री की 'सर्वार्थसिद्धि' एवं 'पंचाध्यायी' की टीकाएँ अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। “सर्वार्थसिद्धि" की समीक्षात्मक प्रस्तावना पर वी. नि. भा. ने उन्हें २५०१) का पुरस्कार तथा स्वर्णपदक भेंट कर सम्मानित किया था। पण्डितजी के अन्य मौलिक ग्रन्थों में 'जैनत्व मीमांसा' एवं 'खानिया तत्त्वचर्चा' है। दोनों ग्रन्थ आपके अगाध पाण्डित्य के प्रतीक हैं। पण्डितजी का एक अन्य ग्रन्थ 'वर्ण जाति एवं धर्म' है, जिसमें आपने जैन साहित्य में वर्णित गोत्र, वर्ण एवं जातियों का सुन्दर विश्लेषण किया है। वर्तमान में आप विविध शिलालेखों एवं मूर्तिलेखों के आधार पर जैन उपजातियों का अध्ययन कर रहे हैं। तीर्थकर : नव-दिस. ७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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