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पं. श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री दिग. जैन साहित्य के इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान् माने जाते हैं । उन्होंने जैन साहित्य का इतिहास: पूर्व पीठिका ( १९६३ ई.) तथा जैन साहित्य का इतिहास, भाग १ - २ (१९७६ ई.) लिखकर युगों से खटकने वाली कमी को पूरा किया है । यद्यपि इनके पूर्व भी पं. नाथूरामजी प्रेमी ने जैन साहित्य और इतिहास एवं पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश नामक इतिहास ग्रन्थ लिखे थे जो स्वयं में अधिक महत्त्वपूर्ण भी थे, किन्तु वे केवल शोधनिबन्धों के संग्रह-मात्र थे, जैन साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास नहीं । दिग. जैन साहित्य के क्रमबद्ध इतिहास के अभाव में शोधार्थियों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था । पण्डितजी के उक्त ग्रन्थों से उक्त कमी की पूर्ति हुई है । ऐसे ग्रन्थों का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित होना नितान्त आवश्यक है, जिससे कि विदेशी विद्वान् भी दिग. जैन साहित्य के मर्म एवं उसके क्रमबद्ध विकास से भलीभाँति परिचित हो सकें ।
पं. नाथूरामजी प्रेमी (देवरी, सागर, म. प्र. १८८१-१९६० ई.) जैन इतिहास जगत् के भीष्म पितामह कहे जा सकते हैं, जिन्होंने अपनी ऐतिहासिक दृष्टि से अनेक दुर्लभ हस्तप्रतियों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन किया । साहित्यिक इतिहास की दृष्टि से उनकी निम्न रचनाएँ शोधार्थियों के लिए सन्दर्भ-ग्रन्थों का कार्य करती रहीं - - (१) कर्नाटक जैन कवि, (२) विद्वद्रत्नमाला, (३) हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, (४) भट्टारक मीमांसा, (५) जैन साहित्य और इतिहास |
डॉ. हीरालाल जैन ने मध्यप्रदेश शासन के अनुरोध पर भारतीय संस्कृति को जैन धर्म का योगदान ( १९६२ ई . ) नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया, जिसमें उन्होंने श्वेताम्बर जैन साहित्य के साथ-साथ दिग. जैन साहित्य के इतिहास का विवेचन भी किया है। इसके पूर्व डॉ. जैन " जैन इतिहास की पूर्व पीठिका " ( १९३९ ई.) का प्रणयन कर चुके थे, जो कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सिद्ध हुआ ।
पं. के. भुजबली शास्त्री ( काशीपट्टण, कर्नाटक १८९७ ई.) उन विद्वानों में से हैं, जिनका जन्म तो दक्षिण भारत में हुआ, किन्तु जिनकी कर्मभूमि प्राय: उत्तरभारत ही रही । इस कारण दोनों प्रदेशों की जैन समाज उन्हें अपना-अपना मानकर निरन्तर सम्मानित करती रही । पण्डितजी ने कन्नड़ जैन साहित्य पर काफी कार्य किया है। अभी हाल में उन्होंने कन्नड़ के दिग. जैन कवियों का ऐतिहासिक इतिवृत्त प्रकाशित किया है जिसका नाम है "पंपयुग के जैन कवि " । इसमें उन्होंने ९४१ ई. से लेकर १२५४ ई. के मध्य होने वाले जैन साहित्य एवं साहित्यकारों का अच्छा परिचय दिया है । पण्डितजी सन् १९२३ से १९४४ तक जैन सिद्धान्त भवन, आरा के पुस्तकालयाध्यक्ष रहे । उस समय आपने जैन विद्या का गहन अध्ययन किया तथा 'जैन सिद्धान्त भास्कर' के सम्पादक - मण्डल में रहे । आपके हिन्दी भाषा में लिखित ( १ )
पूजा की आवश्यकता, (२) दिगम्बर मुद्रा को सर्वमान्यता, (३) जैन प्राकृत वाङमय, संस्कृत भाषा में लिखित, (४) आत्म निवेदनम्, (५) शान्ति शृंगार विलास तथा (६) भुजबल चरितम् ; तथा कन्नड़ भाषा में लिखित ( ७ ) जैनरमूरारत्नगलु,
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.वि. सा. अंक
आ.
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