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________________ उनकी हर परत में रस ले रहा है, या उनसे आविष्ट अथवा परिवेष्टित है ? भेदविज्ञानी का अर्थ केवल भेदविज्ञान का जानकार ही नहीं है, उसका विशुद्ध अर्थ है, पुद्गल और जीव द्रव्यों के पृथक्करण की साधना करनेवाला निःस्पृह साधक, ऐसा साधक, जिसके तरकश के तीर बराबर चल रहे हैं और जो पुद्गल और जीव की अनादि मैत्री को अविरल तोड़ रहा है। साधस्वाद के लिए कभी नहीं जीता, वह अस्वाद में जीता है, और जो लेता है वह मात्र शरीर को बनाये रखने के लिए, साधन को सक्रिय रखने के लिए। वह पेट-समाता ग्रहण करता है; किन्तु देखा गया है कि कई साधु स्वाद में स्वाद लेते हैं, और सुस्वादु भोजन न मिलने पर शिकायत करते हैं, कुछ आवासीय सुविधाओं के आरामदेह न होने की शिकायत करते हैं, यानी अब साधु सरदर्द होते हैं, वे सरदर्द ढोते नहीं हैं। ऐसे साधुओं की अलग से कोई पहचान नहीं है, कई सवस्त्र होकर भी दिगम्बर मुनि की भाँति निःस्पृह हैं, और कई निर्वस्त्र-दिगम्बर होकर भी भीतर वस्त्र पहने हैं, यानी बाना कसौटी नहीं है, वस्तुतः विचारों का जीवन में जो आकार दिखायी देता है, वही असली कसौटी है; ज्ञान और चारित्र का समन्वित रूप ही सच्चा प्रतिमान है। साधु एक खुली किताब है, या कहें कि वह एक जीवन्त शास्त्र है, एक ऐसा शास्त्र, जिसमें चारित्र-लिपि का उपयोग हुआ है, जिसके अक्षर-अक्षर, वर्ण-वर्ण से अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य प्रकट हो रहे हैं। इसलिए साधुओं की अपनी कोई जगह नहीं है, सारी धरा उनकी अपनी है, सारे प्राणी उनके अपने हैं, सारी धड़कनें उनकी अपनी हैं, या हम यों कहें कि सूई की नोक-जितनी जमीन भी उनकी नहीं है, एक भी प्राणी उनका नहीं है, वे निरन्तर सल्लेखन में लगे हुए हैं, वे कषाय को कृश-क्षीण करने की कला में दक्षता प्राप्त किये जा रहे हैं, तीर्थकर : नव. दिस. ७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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