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इस बीच जो भी उनके सहज संपर्क में आ रहा है, स्वर्ण बन रहा है, वे इस चिन्ता से मुक्त हैं कि कौन-क्या हो रहा है, या किसे क्या हो जाना चाहिये ? वे अपनी चिन्ता से भी मुक्त हैं, वे विगत कल की चिन्ता से भी मुक्त हैं, वे आगामी कल की चिन्ता से भी मक्त हैं, वे आज में, अभी में, विगत-अनागत की शल्यों से विमक्त हैं, वे वर्तमान के अध्येता हैं, वर्तमान एक क्षण पर सुस्थित है, उसे 'फील' करना, उसे 'सेन्स' करना कठिन है, उसकी अनुभूति दुष्कर है, उसकी पहचान मुश्किल है, असंभव कुछ नहीं होता; . किन्तु आधे से अधिक साधु अतीत के पुजारी हैं, उनका एक मोटा प्रतिशत भविष्य की कामनाओं का याचक है, एक बहुत छोटा, कहिये, नगण्य प्रतिशत अनुसंधान कर पाया है वर्तमान का; वस्तुतः साधु वे हैं, जो वर्तमानता की खोज में अपना अप्रमत्त-सावधान पग डाले हुए हैं, अपनी नासिकाग्र दृष्टि गड़ाये हुए हैं, क्षण-सिन्धु में जो गोते ले रहे हैं, क्षण के दुर्ग को जिन्होंने तोड़, या जीत लिया है, वे हैं साधु। साधुवेशी अधिकांश अस्तित्व आज ऐसे हैं, जिन्हें क्षण ने जीत लिया है, विरल ही ऐसे हैं, जिन्होंने क्षण की छाती पर अपनी विजय का झण्डा गाड़ा है। यह 'समय' की कसौटी है, इस कसौटी को सब साधु उपलब्ध नहीं होते, यह कसौटी भी सब साधओं को उपलब्ध नहीं होती, जिन्हें यह कसौटी मिलती है, या जो इस कसौटी को मिलते हैं, "णमो लोए सव्व साहूणं' पद उन्हीं के लिए प्रयुक्त है। वे प्रणम्य हैं, प्रणम्यों के प्रणम्य हैं; जहाँ भी वे हैं उन्हें नमस्कार, जिस वेश में भी वे हैं, उन्हें उस बाने में नमस्कार, जितने वे हैं उतने सबको नमस्कार, उन पर सर्वस्व निछावर, उन पर सर्वोत्सर्ग।
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आ.वि.सा. अंक
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